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________________ ११६ ] मेरु मंदर पुराण - अर्थ-आदित्य देव ने धरणेंद्र से कहा कि विषवृक्ष के लगाने तथा बडा हो जाने के बाद उसको काटना सत्पुरुषों के लिये उचित नहीं है, ऐसा विद्वानों का कहना है। एक कवि ने कहा है: जल न डुबोवत काठ को कहो कहां को प्रीति । अपनो सोंचो जान के यही बडों की राति ॥ इस बात को भली प्रकार मनन करना चाहिये । यह सभी को मालुम है । परम्परा से विद्याधरों में ऐसा कथन चला आया है कि किसी को किसी प्रकार का भी कष्ट देना उचित नहीं है। इसका भावार्थ यह है:- धरणेंद्र को प्रादित्य देव समझाने लगा। उस समय भगवान् के ध्यान से इन्द्र का आसन भी कंपायमान हो गया था। महापुरुषों का धर्य भी जगत के कंपन का कारण हो जाता है । इस प्रकार छै महीने में समाप्त होनेवाले प्रतिमा योग को प्राप्त हुए धैर्य से शोभायमान रहने वाले भगवान् का वह लम्बा समय भी क्षणभर में व्यतीत हो गया। इसी के मध्य कच्छ महाकच्छ के पुत्र वे दोनों राजकुमार जो आये थे वे महान तरुण व सुकुमार थे। नमि और विनमि उनका नाम था, और दोनों ही भक्ति से निर्मल होकर भगवान् की चरणों की सेवा करना चाहत थे । वे दोनों ही भोगोपभोग विषयक तृष्णा से सहित थे। इसलिये हे भगवन् ! आप प्रसन्न होइये। इस प्रकार कहते हुए वे भगवान् को नमस्कार कर उनके चरणों से लिपट गये और उनके ध्यान में विघ्न. करने लगे और कहने लगे कि हे स्वामी! आपने अपने इस साम्राज्य को पुत्र तथा पौत्रों को बांट दिया है । बांटते समय हम दोनों कुमारों को भूल ही गये । इसलिए अब हमको भी भोग सामग्री दीजिए। इस प्रकार वे भगवान् से बार-बार आग्रह कर रहे थे। उन दोनों कुमारों में उचित अनुचित का कुछ भी ज्ञान नहीं था और वे दोनों उस समय जल, पुष्प तथा अर्घ से भगवान् की उपासना कर रहे थे। तदनंतर धरणेद्र नाम को धारण करनेवाले भवनवासियों के अंतर्गत नाग कुमार देवों के इन्द्र ने अपना आसन कंपायमान होने से नमि विनमि के समस्त वृत्तांत को जान लिया। अवधिज्ञान से इस सारे वृत्तांत को जानकर वह धरणेंद्र बडे ही समारंभ ठाठ के साथ उठा और भगवान् के समीप आया। वह उसी समय पूजा की सामग्री लेते हुए पृथ्वी काछेदन करते हुए भगवान् के पास पहुंचा और दूर से ही मेरु पर्वत के समान खडे हुए मुनिराज वृषभदेव को देखा। उस समय भगवान् ध्यान में लवलीन थे और उनका देदीप्यमान शरीर तप के कारण प्रकाशमान हो रहा था। इसलिए वे ऐसे मालुम होते थे मानों वायुरहित प्रदेश में दीपक ही हो, अथवां वे भगवान् किसी उत्तम यज्ञ करने वाले के समान शोभायमान हो रहे थे, क्योंकि जिस प्रकार यज्ञ करने वाले अग्नि में माहुति करने में तत्पर रहते हैं, उसी प्रकार भगवान् भी महान ध्यान रूपी अग्नि में कर्मरूपी पाहुति जलाने के लिए उद्यत थे, और जिस प्रकार यज्ञ करने वाला अपनी पत्नि सहित यज्ञ करता है उसी प्रकार भगवान् भी कभी नहीं छोडनेवाले दया रूपी पत्नि के सहित थे । अथवा वे मुनिराज एक कुजर अथवा हाथी के समान मालुम होते थे क्योंकि जिस प्रकार हाथी महोदय अर्थात् भाग्यशाली होता है उसी प्रकार भगवान् भी महान् भाग्यशाली व महोदय थे। जिस प्रकार हाथी का शरीर ऊंचा होता है उसी प्रकार भगवान् का शरीर भी ऊंचा था। हाथी जिस प्रकार सुअंश अथवा पीठ की उत्तम रीढ सहित होता है, उसी प्रकार वे भी सुग्रंश तथा उच्च कुल. में सुशोभित थे। हाथी जिस प्रकार रस्से के द्वारा खंभे के बंधा रहता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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