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मेरु मंदर पुराण
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उन दोनों को हम लोग जानते हैं, परन्तु प्राप इस विषय में अनभिज्ञ हैं इसलिए जहां भी प्राप को जाना है जाईये | यह वृद्ध हैं यह तरुण हैं यह मात्र अवस्था का ही विचार है । बृद्धावस्था में न तो ज्ञान की वृद्धि होती है और न तरुण भवस्था में बुद्धि का ह्रास ही होता है बल्कि ऐसा देखा जाता है कि अवस्था के पक जाने से वृद्धावस्था में प्रायः बुद्धि की मंदता हो जाती है । और प्रथ । अवस्था में प्राय: बुद्धिमानों की बुद्धि बढती रहती है। न तो नवीन अवस्था दोष उत्पन्न करने वाली है और न वृद्धावस्था गुण उत्पन्न करने वाली है । क्योंकि चंद्रमा नवीन होनेपर भी मनुष्यों को प्रल्हाद करता है और अग्नि जीर्ण होने पर भी जलाती है । हम होनों ही इस प्रकार के कार्य प्राप से पूछना नहीं चाहते फिर श्राप व्यर्थ ही बीच में क्यों बोलते हो ? आप जैसे निद्य श्राचाररण वाले दुष्ट पुरुष बिना पूछे कार्यों का निर्देश कर तथा अत्यंत प्रसत्य व चापलूसी के वचन कह कर लोगों को टगा करते हैं । बुद्धिमान पुरुषों की वाणी कभी स्वप्न में भी असत्य भाषण नहीं करती। उनकी चेष्टा कभी दूसरों की बुराई करने को नहीं चाहती, न दूसरों के लिये कठोर वारणी होती है । जिन्होंने जानने योग्य सम्पूर्ण तत्वों को जान लिया है ऐसे आप सरीखे बुद्धिमान पुरुषों के लिये हम बालकों के द्वारा न्याय मार्ग का उपदेश देना योग्य नहीं है । क्योकि जो सज्जन पुरुष होते हैं वे न्यायपूर्वक जीविका से प्रसन्न रहते हैं ।
वे कुमार श्रागे कहने लगे कि आयु के अनुकूल धारण किया हुआ यह आपका वेष बहुत ही शांत है, आपकी प्रकृति भी सौम्य है और आपके वचन भी प्रसाद गुरण सहित तथा तेजस्वी हैं, और आपकी बुद्धि इतनी विलक्षण है जो अन्य साधारण पुरुषों में नहीं पाई जाती । ऐसा यह आपका भीतर छिपा हुआ अनिर्वचनीय तेज तथा अद्भुत शरीर प्रापकी महानुभावना को कह रहा है । इस प्रकार आपका विशिष्ट विवेक भी आयु की विशेषता को प्रकट कर रहा है । ऐसे पुरुष महान भद्र होते हैं फिर भी आप हमारे कार्यों में मोह उत्पन्न कर रहे हैं, इसका क्या कारण है, यह हम नहीं जानते । भगवान् वृषभदेव को प्रसन्न करना सब के प्रशंसा करने योग्य है । यही हम दोनों का इच्छित फल है अर्थात् हम लोग भगवान् को ही प्रसन्न करना चाहते हैं । परन्तु आप उस में विघ्न डाल रहे हो इसलिए जान पडता है कि दूसरों के कार्य करने में आप उद्योगशील नही हैं । आप दूसरों का भला नहीं होना देना चाहते। दूसरों की वृद्धि देख कर दुर्जन मनुष्य ईर्ष्या करते हैं । प्राप जैसे सज्जन श्रौर महापुरुषों को दूसरों की वृद्धि से ही प्रसन्न होना चाहिये । भगवान् के वन में निवास करने से क्या उनका प्रभुत्व नष्ट हो गया ? देखो भगवान् के चरण कमलों में यह चराचर विश्व विद्यमान है । आप जो हम लोगों को भरत के पास जाने की सलाह दे रहे हो, यह बात ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा कौन बुद्धिमान होगा जो बड़े २ फलों की इच्छा करनेवाला पुरुष कल्पवृक्ष को छोडकर अन्य पेडों की सेवा करेगा, अथवा रत्नों की इच्छा करने वाला पुरुष महास ुद्र को छोडकर शिवाल (कीचड ) में होने वाले समुद्र की सेवा करेगा अथवा धान की इच्छा करने वाला पुनाल (भूसों) की इच्छा करगा ? भगवान् वृषभदेव और भरत में क्या बड़ा भारी अंतर नहीं है ? क्या मोक्ष पद की समुद्र के साथ बराबरी हो सकती है? क्या लोक में स्वच्छ जल से भरे हुऐ जलाशय नहीं हैं जो चातक पक्षी हमेशा मेघ से ही जल की याचना करता क्या उसको ग्रनिर्वचनीय हठ नहीं है ? अभिमानी पुरुष उदार हृदय वाले का प्राश्रय लेकर बड़े भारी फल की वांछा करते हैं । सो श्राप इसको उन्नति का ही आधार समझो ।
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