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________________ मेरु मंदर पुराण [ ११६ इस प्रकार उन नमि विनमि कुमार के अभिमान भरे वचन सुन कर वह धरणेंद्र मन में बहुत संतुष्ट हुमा। सो ठीक ही है, क्योंकि अभिमानी पुरुषों का धैर्य प्रशंसा करने योग्य होता है । वह धरणेद्र मन ही मन विचार करने लगा कि अहा ! इन दोनों तरुण कुमारों की इच्छा कितनी बडी है, इनकी गंभीरता भी आश्चर्य-कारक है। भगवान् पादिनाथ में इनकी श्रेष्ठ भक्ति भी आश्चर्य जनक है। इनकी निस्पृहता भी प्रशंसा करने योग्य है। इस प्रकार वह धरणेंद्र अपना दिव्य रूप प्रकट करता हुआ, उनसे प्रीतिरूपी लता के समान बचन कहने लगा कि तुम दोनों तरुण होने पर भी वृद्ध के समान हो, मैं तुम दोनों को घोर वीर चेष्टानों से बहुत ही प्रसन्न हुग्रा हूं. मेरा नाम धरणेंद्र है। मैं नागकुमार पातियों के देवों का इद्र हूँ। मुझे आप पाताल व स्वर्ग में रहने वाले देवों का किंकर समझो तथा मैं आप की यहां की भोगोपभोग सामग्रो को जुटाने पाया हूँ। “ये दोनों कुमार महान क्त हैं। इन दोनों की इच्छा भोगों से पूर्ण करो" इस प्रकार भगवान ने मुझे प्राज्ञा दो है और इसी कारण मैं शोघ्र यहां पाया हूँ । विश्व को रक्षा करने वाले भगवान से पूछ कर प्राज मै तुम दोनों की बताई हुई भोग सामग्रो दूगा। इस प्रकार धरणेंद्र के वचनों से वे दोनों राजकुमार अत्यंत प्रसन्न हुए और कहने लगे कि सचमुच ही गुरुदेव हमपर प्रसन्न हुए हैं और हमको मनवांछित फल देना चाहते हैं। इस विषय में जो सच्चा मत हो वह हम से कहिये; क्योंकि भगवान् को सम्मति बिना भोगोपभोग सामग्री इष्ट नहीं है। तब उन दोनों कुमारों की बात सुनकर युक्ति पूर्वक विश्वास दिलाकर धरणेंद्र भगवान् को नमस्कार करके उन दोनों कुमारों को अपने साथ लेगया। महान् ऐश्वर्य युक्त वह धरणेंद्र दोनों कुमारों के साथ विमान में बैठकर आकाश में जाता हुआ ऐसा शोभायमान हो रहा था मानो ताप और प्रकाश के समान उदित हुअा सूर्य ही है। अथवा जिस प्रकार विनय पोर प्रशम गुणों से युक्त कोई योगीराज सुशोभित होता है। इसी प्रकार नागकुमार के समान वह धरणेंद्र भी अत्यंत सुशोभित हो रहा था । वह दोनों राजकुमारों को बिठाकर तथा प्राकाश मागं का उल्लघन कर शीघ्र ही विजयार्द्ध पर्वत पर प्रा पहुँचा। उस समय बह पर्वत पृथ्वी रूपी देवी के हास का उपमा दे रहा था। यह विजयाद्ध पर्वत अपनी पूर्व और पश्चिम की चोटियों से लवण समुद्र में प्रवेश कर रहा था और भरत क्षेत्र के बोच में इस प्रकार स्थित था कि मानों उसके नापने का वह दंड ही हो। वह पर्वत ऊंचे-ऊंचे रत्नों से नाना प्रकार से विचित्रताओं के लिए हुए था और अपनो इच्छानुसार आकाश गंगा को घेरे हुए अपने शिखरों से ऐसा जान पड़ता था मानों मुकटों से ही शोभायमान हो रहा हो । पडते हुए झरनों के शब्दों से उसकी गुफाओं के मुख मापूरित हो रहे थे और ऐसा मालुम होता था कि मानो अतिशय विश्राम करनेवालों के लिये देव देवियों को बुला ही रहा हो। उसको मेखला अर्थात् बीच का किनारा पर्वत के समान ऊंचा बहां नहीं चलते हुए तथा गम्भीर गर्जना करते हुए बड़े-बड़े मेघों द्वारा चारों मोर से ढका हुमा था। देदीप्यमान स्वर्णों से युक्त और सूर्य की किरणों से सुशोभित अपनी किरणों के द्वारा वह पर्वत देव और विद्याधरों को जलते हुए दावानल की शंका कर रहा था। उन पर्वत के शिखरों के समीप लंबी धारा वाले जो बड़े-बड़े झरने पडते थे, उनसे मेघ वर्षरित हो जाते थे, और उनसे उस पर्वत के समान ही बड़े-बड़े झरने बनकर निकल रहे रहे थे। उस पर्वत के बनों में अनेक लताएं फैली हुई थीं और उन पर भ्रमर बैठे हुए थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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