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________________ - wmr. मेह मेवर पुराण [ १५६ को कहने लगे कि हम दोनों परस्पर स्पर्म करें। ऐसा कहकर वे अयोग्य बातें उस देशया से कहने लगे। इस संबंध में एक कवि क्षत्र चूडामलि में कहता है: विषयासक्तचित्तानों, गुणः को वा न नश्यति । न पैदुष्यं न मानुष्य, नाभिजात्यं न सत्यवाक् ।। जो मनुष्य विषयभोग में मासक्त हो जाता है उसके सभी गुणों की इतिश्री हो जाती है पांच ऐसे मनुष्यों में विद्वत्ता, मनुष्यता, कुलीनता और सत्यता नादि एक गुण भी नहीं रहता। "पराराधनजात् दैन्यात, पैशून्यान् परिवादतः । पराभवात किमन्येभ्यो, न विभेति हि काषुकः॥ जो प्राणी विषयभोगों में प्रासक्त हो जाता है उसके कारण वह अपनी दीनता, चुमली, बदनामी, अषमान प्रादि की पर्बाह नहीं करता। पाक त्यागं विवेक चे, वैभवं मानितापि च । कामार्ताः खलु मुञ्चन्ति, किमन्यैः स्वञ्च जीवितम् ।। कामासक्त प्राणी भोजत, दान, विवेक, धन, दौलत और बडप्पन प्रादि का जरा भी विचार नहीं करते, और औरों की बात क्या ? भोम विलास के पीछे वे अपनी जान पर भी पानी फेर देते हैं। ८५९॥ मोगताल मुडे युरविन नाट्त मुनिदलिदि। भोगत्ताल कबुमि निकु पुल्लरि बाळरागुं । शेगर् कामु युरवे शेर्दन मदोंड, मैंटिट् । तागता निनक्क माटो तरवत तिळिदु निडान् ॥८६॥ मर्थ-मोहनीय कर्म के उदय से इस अशुचिमय शरीर को देखकर प्रासद होना इस का निराकरण न करते हुए इस शरीर की काम वासना में लवलीन होना यह अज्ञानी मूर्ख जीवों को ही प्रिय है। परन्त ज्ञानी जीव इसके प्रति घृणा करते हैं। बंडे २ चक्रवर्ती तीर्थकरें मुख मोडकर इस अशुचिमय शरीर के द्वारा मोह छोडकर मोक्ष की प्राप्ति करते हैं । परन्तु प्रज्ञानी जीव मोह की तीव्रता, पंचेंद्रिय विषय वासना का गाढ प्रेम होने के कारण इसी में सुख शांति समझकरं छोडना नहीं चाहता है। इसी प्रकार इस मुनि की दशा है । यह चारित्र मोहनीय कर्म का उदय ही यह कार्य कर रहा है। मांस भक्षी जीवे भक्षण करने योग्य इंस निध शरीर (मास) में सुखं समझने वाले ऐसें पापी जीव मोहांध जीव बार २ निघगत में में पाने की भावमा करते हैं। इस प्रकार वह विचित्रमति मुमि अपने महावत से व्युत हो गये। 4.0 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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