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________________ ३५२ ] मेरमंदर पुराल शीश सफल सतन नमैं, हाथ सफल प्रभुसेव । पाद सफल सतसंमतें तब पावे कुछ भेव ।। सत संगति में मति बढे ज्यों बौझे में घास । रज्जब कुसंग न बैठिये, होय बुद्धि का नाश । नारी की संगति करने से यौवन का नाश होता है, मद्य पान करने से द्रव्य नष्ट होता है, कुसंगत से प्राणों का नाश होता है, इस प्रकार इन तीनों का नाश होता है। मस्तक की सफलता साधुमों के नमस्कार करने में है। प्रभु की सेवा करने में हाथों की सफलता है। गुणीजनों की संगति से पैर सफल होते हैं और तभी कुछ भेद पा सकता है। अच्छे मादमियों की संगति करने से बुद्धि इस प्रकार बढती है जैसे घास का बोझा होता है, और कुसंग में बैठने से बुद्धि का नाश होता है। इसी प्रकार मनुष्य को सत्संगति न मिलकर कुसंगत मिलने से बुद्धि नष्ट हो माती है।।८५६।८५७॥ उन बोर्ड वार्ते पातलुवत्तलु मुनिबुं कामत् । तुने तुरंद निहाल तूयवे यागु मंदि। पिनमिदु पिनतै सेरं दाल पिळत्त देन पेरिय विब । मन युमे लेन्न शाल सुळित्तवळ बेरुत्तु पोनाळ ॥५॥ पर्थ--इस काम विकार को उत्पन्न करने के लिये स्त्री पुरुष को विकार से देखना, विकार भाव की तथा खोटी अश्लील बातें करना ये सब काम भोग के कारण होते हैं । प्रेम की गातें परस्पर में काम भोग के लिये कारण होती है। स्त्रियों के काम वासना न होने पर भी बलात्कार करने पर वह प्रेम के साथ सेवन करने के समान उत्सुक होतो हैं । इस प्रकार उन मुनिराज को उस वेश्या ने वैराग्य पूर्वक बातें कह कर विकार भाव दूर करने की कोशिश की। तब वह मुनिराज कहने लगे कि यदि मुर्दे के साथ भी विषयभोग किया जावे तो अधिक मानन्द प्राता है । ऐसा सुनकर तुरन्त ही उस वेश्या ने अपना मुह दूसरी तरफ मोड लिया। ॥ ५ ॥ मालं शावन्न सुन्नं मंजन वान कलिंगम् वेरा। शाल नाळिरक्किनुंदर गुरणं सेन्धि येळिविडावा ॥ मनुला मुरंदै सेरंदा लोर कनस्तळियुं वणंम् । बानलाम वनगुम सील मायब लेन्नादु सोन्नान् ॥५६॥ पर्व-पुष्पहार, चन्दन, अच्छे सुगंधित द्रव्य, अनेक प्रकार के मुगन्धित चूर्ण, रेशमी बहुमूल्य वस्त्र एक स्थान पर रहने से इसका नाश नहीं होता है। और वही वस्तु शरीर का स्पर्श होते ही एक क्षण में नाशमान हो जाती है। इन सभी विषयों को वेश्या के समझाने पर थी उन मुनिराज ने अपने महावत धारण किए मेष को छोड दिया। तत्पश्चात् उस वेश्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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