________________
मेरु मंदर पुराण श्री महावीर खेन रहर विचारों में विकार की उत्पत्ति हो गई। अतः विचित्रमति पूछते हैं कि उस वेश्या के हाव भाव शृंगार कैसा है? कैसो उसकी सुन्दरता है? ||८५४॥
विनंईन् देळुच्चि तलाल वेदने वसत्तनागि। मुनि यवन् दुनियनागि पारनक्केंद्र, पोनान् । ट्रन दिडं कुरुग कंड तैयला ळुवंदु शाल।
विनयत्ति केटाल विरत्तिन फलन यड़े ।।०५५॥ अर्थ-क्योंकि बाल अवस्था से जिनको संसार से विरक्तपना हो गया था और पंचेद्रिय विषय भोगों से लालसा हट चुकी थी। बचपन से ही जिन्होंने घोर तपस्या की थी। परन्तु कर्मगति बलवान है। संसार चक्र में कब कौन कैसे फंस जावे, कहा नहीं जा सकता। उसी प्रकार विचित्रमति मुनिराज ने हाव भाव शृंगार आदि सारे वेश्या के बान लिये । और मायाचार से उस विचित्रमति ने प्रीतिकर मुनि से कहा कि मैं पाहार के लिये नगर में जा रहा है। वह मुनि अयोध्या नगरी में माकर जिस गली में वह बुद्धिसेना वेश्या रहती थी उसो के घर के बाहर होकर चर्या के लिये जाने लगे। उन मुनिराज को देखकर उस वेश्या ने नमस्कार किया और प्रार्थना की कि कल जो मुनिराज पधारे थे उनसे जो मैंने पंचारणवत ले लिये हैं। उन व्रतों से मुझे कौन से फल की प्राप्ति होगी। ८५५॥
मोग रागत वाय पाद गळे मुनिवन् सोल्ल। भोग रागत्त वार्तं पुदियनु मुनिव नॅड.॥ नाग रागत्तिर् केट्टार कदंगळे नवि पिन्नू । वेग रागत्तनाग मेल्लि येल बेरुप्प सोनाळ ॥५६॥ येलुबु तोलिंगळ वेन्नं सून कुडर् मलं कन मूळ । कळद नत्तोर नरंतु वळुप्पि बैर कंडाल् ॥ विलगि सेंरलिडि बेरुत्तमिळं दु वतुं पोवार ।
कलंदिवै किरंद कुप्पै कंडु कामुरब देनो ॥८५७॥ अर्थ-वह वेश्या कहने लगी कि हे मुनिराज ! यह शरीर मांस रक्त से युक्त है। इस में तिल भर भी सार नहीं है। इसलिए ऐसे निद्य शरीर पर माप मोह मत करो और ऐसे मोह का त्याग करो। तीन लोक में प्राप्त होने वाले मनुष्य जन्म को पाकर उत्तम कुल में जन्म लेकर संयम धारण किया है । ऐसे संयम को त्यागकर अधोगति को लें जाने वाले गंदे विचार अथवा पाप विचार जो मापने किया है यह आपके लिये दुखदायक है। ऐसे विचारों का स्याग करो। क्योंकि किसी कवि ने कहा है:
नारी संग यौवन गया, द्रव्य गया मद पान । प्राण गये कुसंग में, तीनों गये निदान ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org