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अरु मनर पुराण
पुळु कुलं पोदिद याकै पुरिगद नेन पोरुंदिनेन मुन । नळु कुर्डबिन कट्चंद्र बार् वत्ता लेंड्र तन्नं ॥ इळित्तिडा दळुक्कु चोरु पुळुक्कुल दिच्चै तन्नाल् । वळुक्कि नान् मा याट्र केडुक्कु मातवत्तिन् मादो ||८६१ ॥
अर्थ - कृमि, कीटों से भरे हुए इस दुर्गंधमय शरीर के सम्पर्क से अपवित्र हुआ यह आत्मा प्रनादि काल से इस शरीर के मोह से ही आज तक संसार में दुख का अनुभव करता आ रहा है । ऐसी अपने मन में भावना न करके अनेक निंद्य और दुर्गंध युक्त मलों से भरे हुए शरीर पर मोहित होकर तपश्चरण से वह मुनि पतित हो गया ।।८६१ ।।
पोरि पुळत्तेकुंद भोगदास पोगविट्ट । वेरुत्तेळु मनत्तरागि वीटिवय् विळयु मंड्रि | मरुत्तेदि राग सेल्लिन् माट्रिडे सुळल्व रेन्नुं । तिरत्तिनं निनंत लिल्लान् शीलत्ति निळिदु सेड्रान् ॥ ८६२॥
अर्थ - यह मानव प्राणी पंचेन्द्रिय भोग सम्बन्धी रागद्वेष को त्यागकर शुद्धात्म स्वरूप में एकाग्रमन से शांति से मोक्ष की प्राप्तिकर लेता है । इस प्रकार न होने से इसके विरुद्ध विषयभोगों में राग करने वाला होता है। इस प्रकार भगवान के मुख से निकला हुआ श्रुतज्ञान व प्रागम को वह मुनि अनुभव न करके अपने धारण किये हुए शीलगुण तथा तपचरण से च्युत होकर विषयभोग में मोहित हो गया ।। ६६२ ||
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उडु नाम विट्ट वल्ला उरु विल्लै युलगत्तिन् कन् । वडुलाम् कुंबलागि मासेलां तिरडं दंड्रि ||
कंड वोंडिले कामं कन्नि नै पुवैत्त काल ।
तं नाम विट्ट वास युवट्ट मेंड्र नवि ळादान् ॥८६३॥
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अर्थ- ज्ञान, दर्शन, चेतना स्वरूप मेरा श्रात्मा है। इसका अनुभव न करते हुए प्रमा सेभित्र पंचेंद्रिय विषय मेरा है, यह जड पुद्गल से युक्त शरीर ही मेरा है, ऐसी भावना करके इस संसार में अनेक प्रकार के दुख का भोगने वाला कारण हो गया। इस शरीर के संबंध में भली भांति विचार करके देखा जाय तो अनेक प्रकार की कृमि कीटों का स्थान इन स्त्रियों का शरीर अत्यन्त निद्य है। ऐसा विचार करके यह मूढ जीव अपने सच्चे स्वरूप की पहचान न होने के कारण दुर्गंध से भरे हुए शरीर के मोह से अधोगति में पडकर अनेक दुख से भरा हुआ संसार समुद्र में भ्रमण करता है। यह चारित्र मोहनीय कर्म की विचित्रता है । चारित्र मोहनीय कर्म के तीव्र उदय से वह विचित्रमति मुनि कामांध होकर पशु के समान हिताहित का विचार न करके अपने पद से च्युत हो गया || ८६३||
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