SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 401
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मेरु मंदर पुराण मोग मोडु मिच्चोदयत्तालु मर् । ट्रेग मागि नांगिल विलंगा इडं। काग मेयन कारेगे यार मनत् ।। तागु मायं विलागि ने याकुमे ।।८३२॥ पर्थ-अत्यन्त तीव चारित्र मोहनीय कर्म के उदय से दर्शन मोहनीय, मिथ्यात्व कर्म के उदय से एकेंद्रिय पर्याय में और मिथ्यात्व से मंदतर प्रौदयिक परिणामों के उदय से दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय प्रौर पंचेंद्रिय इन चार जातियों में तथा परिणामों के अनुसार तियंचगति में जन्म लेता है । और स्त्रियों में अत्यन्त मोहित रहने के कारण मायाचार सहित होने के कारण तिथंच गति में जन्म लेता है ।।८३२॥ उळ्ळं मैमुळि योंड दलु मिला। वेळ्ळ मान्दरं वीळ्वर विलंगिडे । तळ्ळ वारं शेयातनं तेडुमक् । कळळ नेजिनर बोळगति युमिदे ॥३३॥ मंडि निड़, पिरं पोर वांगुवार । तिड, तेनोडु कट पुलसिर् शेल्वार ॥ निड. नीदि केडुत्तय लार् मने। योंड, वारळ लुंगति युमिवे ॥८३४॥ अर्थ-मन, वचन, काय इन तीनों में से एक २ के प्राधीन होने वाले प्रज्ञानी जीव निद्यनीय पशु गति में जन्म लेते हैं। इस प्रकार मनुष्य गति को प्राप्त होकर अपने करने योग्य धर्म कार्य को न करके कपटाचार तथा, मायाचार करने से जोव तियंच गति में जन्म लेता है। न्यायालय में जाकर झूठ बोलना, झूठी गवाही देना, झूठा काम करना, दूसरे के द्रव्य को अन्याय से शक्ति पूर्वक हरण करना, अपने बल से दूसरे को आधीन कर लेना, पैसा लेकर मूठी गवाह देना, दूसरे को ठगना यह सभी मायाचार कहलाता है। और मद्य, मांस, मधु को सेवन करने वाले, अहिंसा धर्म को नाश करने वाले, अपनी विवाहिता स्त्री को छोडकर परस्त्री सेवन करने वाले तियंच गति में जन्म लेते हैं ॥८३३।।८३४।। वंडला दुइरिल्ले येनच्चोला। निइती नेरि इर् शेरिवार्गळु ॥ मोंड. नलवळक्कोर दुई गनुळे । बेडि याकु नर वीळ्गतियं विवे ॥३५॥ मर्थ-इस जगत में परमात्मा एक ही है दूसरा कोई नहीं है, ऐसा कहने वाले तथा शास्त्रों की रचना करके प्रचार करने वाले, उसी के अनुसार चलने वाले, प्रतिवादी के अनुकूल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy