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________________ १७६ ] मेर मंदर पुराण बंधु, वांधव, मित्र आदि सभी प्रेम सत्कार करते हैं । यदि संपति न हो तो कोई प्रेम नहीं करता, अतः संपत्ति का नाश नहीं करना चाहिये । ऐसा माता ने भद्रमित्र से कहा ।।३५६।। कावन् मिगुवाय मोलिहिला तरमोडिटिं। पोदरवेनाटु पोरन् मुळ्दु मवनीय ॥ कोदमेरि पोंडवन कोलं. पोंडि सूळंदु । तीवुतनकाकि मनं शिव दोळुगुं वळिनाळ् । ३६०॥ अर्थ-उस भद्रमित्र ने माता के वचनों को सुना किन्तु माता के कहने को माना नहीं और दीन, दुखी, याचक जनों को बराबर दान देता रहा। दान देते समय उसकी माता ने अग्नि के समान प्रांखें लाल करके उसको मारने की भावना करके अशुभ कर्म का बंध कर लिया। और प्रार्तध्यान से अपना जीवन बिताने लगी ।।३६०॥ . प्रांगवन् दन् सोनमरुत्त वळचिइन पोरुळ्ग । नींग वेळु मतित्तिनु मोवुडंबु नीत्त ॥ पूंगोळलि योगिय विंग वनं पुक्कु । वेन्गै मगवाय् मगन् कन् वेरत्तोड़ पिरंदाळ ॥३६१॥ ... अर्थ-उस भद्रमित्र ने अपनी माता के वचनों पर कोई ध्यान नहीं दिया और उसकी माता सुमित्रा सदैव प्रार्तध्यान में लगी रही और मरकर प्रतींग नाम के वन में व्याघ्री उत्पन्न हुई ॥३६१॥ अरुळिनालुहर्कट कीद प्रोपोर निमित्त माग । वेळि नान् माँग वाळुम विमि लिव्वेळे तोट । मिरुळिला देवर् कोयल किट्ट वोर विळक्किन मेले । मरुळिनाल विट्टर पायंदु मरित्तवे पोल्व नोंदे ॥३६२॥ पर्थ-दूसरे को दान देने में धन का नाश होता है। ऐसा विचार व प्रार्तध्यान करने से उस सुमित्रा ने निंद्यगति में जन्म लिया। जिस प्रकार पतंग दीपक के प्रकाश को देखकर उसमें मोहित होकर अपने प्राण गंवा देता है उसी प्रकार सुमित्रा ने प्रार्तध्यान से धन में मोहित होकर अपने प्राण छोड दिये ॥३६२॥ . अप्पच्चक्कान माय कोपलोभत्तिमाले । राप्पट्ट पिरवि याळी वनत्ति तिरियुनाळुळ् । कंपट्ट पोरळे येल्लाम करणे यालियुमंद । मैपट्ट पुगळिनानी वनत्ति विरगिर पुक्कान् ॥३६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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