SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 232
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ॥ चतुर्थ अधिकार ॥ पूर्णचंद्र का राज्य परिपालन * अमिर्द करगोळिन् मुनियर उरै शेंड्रोरिप्प । तिमिर मेन निविन तीर्थळूद मदिइर् ॥ कुमुदमेन मलंदुवद माट्र वन कोंडे । यमलनडि मनक्कमला तरुनित्द् वैत्तेढुंदान् ॥३५७।। अर्थ-इस प्रकार वरधर्म मुनिराज का कहा हुआ यह उपदेश जिस प्रकार कुमुदिनी विकसित होती है उसी तरह भद्रमित्र को प्रात्मा में अनादिकाल से चला आया सात प्रकार का उपशम होते ही प्रात्मा में उपशम भाव उत्पन्न हुए और वह अपनी शक्ति के अनुसार व्रत को धारण कर सर्वज्ञ अहंत भगवान की स्तुति करके मुनिराज के सन्मुख खडा हो गया। ॥३५७॥ येळंदु मुनि इरुकमल पादं तो दोत्ति। शेळककग माडमिशै शीय पुरं पोक्कु ॥ मुळंगि येळु मुगिलिर् पोरुन् मुळुईं वरियो' । वळंग मनत्तळुगि युरैत्ताळवन् ट्रनमादा ॥३५८।। अर्थ-तदनंतर वह भद्रमित्र वरधर्म मुनि को नमस्कार करके वहां से चलकर सिंहपुर में जाकर अत्यंत सुन्दर महल में प्रवेश किया। तत्पश्चात् जिस प्रकार आकाश में बिजली चमकती है और मूसलाधार वर्षा होती है उसी प्रकार भद्रमित्र ने अपनी संपत्ति को दीन, अनाथ, याचक जनों को बुला २ कर दान देना प्रारंभ कर दिया । उस भद्रमित्र की माता को इस प्रकार अपने पुत्र का दान देना सहन नहीं हुआ और माता कहने लगी ॥३५८।। कुलं पेरिथ गुणमरिनु वाडिवु कुडि पिरप्पु । पोलंक युडय वर् कलदु पुगल्चि इनितडया॥ इलंगु मनै याळं पोरुळिल्ल विडत्ति गर्छ । मलंगल वर पुरुळागलिनि येळियेत् ॥३५॥ अर्थ-हे भद्रमित्र ! तुम अत्यंत प्रेमी व सद्गुणी,श्रेष्ठी, ज्ञानवान, सुन्दर रूप धारण करने वाले, कुलवान, जगत में कीर्ति के पात्र हो । यह सभी संपत्ति और अनुकूल सामग्री जो मिली हुई है इसका तुमको सदुपयोग करना चाहिये । इस प्रकार की सामग्री पुण्योदय से मिलती है । इसका नाश नहीं करना चाहिये । यदि कदाचित् आगे चलकर गरीबी पा जावे तो बडी कठिनाईयां भुगतनी पडेगी । प्रतः तुम दान मत देवो । घर में संपत्ति रहने से पुत्र, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy