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मेरु मंदर पुराण
पगलव नेळाच्यइर् भवनर् तोंड्रिनार् । इगलड तवर्गळे डिसेयुं मींडिनार् ॥ मुर्ग मलर् सोंरिदु लवर् कन् मूडिनार् । इगलुत्तवन् सेप्पिन् मनिये योत्तनन् ॥ १७१ ॥
अर्थ - जिस प्रकार सूर्य उदय होकर शीघ्र ही एकदम ऊपर आजाता है उसी प्रकार भवनलोक के देव प्रत्यंत कांतिमान शरीर वाले ऊपर प्राये । व्यंतर ज्योतिषी देव तुरंत हो प्राकर आठों दिशाओं में रह गये । कल्पवासी देव पुष्प वृष्टि करते हुए आये । उस समय वह संजयंत मुनि ऐसे दीखते थे जैसे शीशे में दीपक रखने से प्रकाश होता है । उसी प्रकार मुनि का परमोदारिक शरीर प्रकाशमान होता था ।। १७१ ।।
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ताम नांडून शंदन मेळ गिंन चरु फलत्तान् वंद ।
धूम भार्तन सुडर् विळक्केरिंदन सोरिवन मलर् मारी ॥ वाय वारिइन् वा वळं ये रिसिइन् मंगयर् नडमुन्ना ।। काम वेळ वेड्रिरुदवन् ट्रिरुदंड पळवुडन टू दिशैदार् । १७९
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अर्थ- वह संयंत मुनि जिस स्थान पर विराजमान थे उस स्थान की भूमि को देवगण ऊपर से ही पुष्पों की औौर चंदन की वर्षा करके सींचते थे । दीप, धूप, चरु, फल आदि को थालों में भरकर मुनि के सामने ला लाकर रख रहे थे। साथ ही रत्नमयी दीपकों का प्रकाश किया । अत्यंत परिशुद्ध शालि ( चांवलों) से पूजन किया। सभी देवांगनाओं ने आकर नृत्य किया। इस प्रकार घातिया कर्मों के नाश करने वाले केवली भगवान् संजयंत की पूजा और स्तुति करने लगे ।। १७२ ।।
विदिग नान्गेयुं कडंदनं यडंदने विकल मीलोरुनान्मै । म दिगनान्गेयं कडदंने यडंदनं युलगला मदि योंड्रिर् ॥ गतिनान्युं कडंदने यडदंनं यगदिये गतिइ ड्रि । तुदिगनान्गेयं कडंदवोर् तुर उडे सुगत बॅपरुमाने ॥ १७३॥
अर्थ - हे नाथ ! आप चार प्रकार के घातिया कर्मों का नाश करके अनंत चतुष्टय को प्राप्त हो गये हैं । आपने मति, श्रुत, अवधि ज्ञान को छोड़कर तीन लोक में चराचर वस्तु को एक समय में जा ने वाले केवल ज्ञान दीपक को प्राप्त किया है। नरकगति, तियंचगति, मनुष्यगति और देवगति इन चारों गतियों को नाश कर पंचमगति नाम की मोक्षगति को प्राप्त करनेवाले हैं अहंत, सिद्ध, साधु ऐसे धर्म को छोड कर शुद्ध परमात्म पद को प्राप्त होने बाले हैं। स्वामी आप ही हमारे रक्षक हो, आप ही सब प्राणियों को शरण देनेवाले हैं । १७३१
उलग मूंड्रयु मेंविडु माटुले योरुकरण दुलगत्तिन् ॥ अलगि नीळयु मगलमु मुयलमु मनुविन लळक्किकं ।।
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