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________________ १०४ ] मेरु मंदर पुराण anwr पाठवें समय में संज्वलन मान का और नवें समय में माया का नाश किया, अर्थात् अनिवृत्ति गुरणस्थान में कर्मों का नाश किया और सूक्ष्मसांपराय नाम के गुणस्थान के अंतिम समय में संज्वलन लोभ का भी नाश कर दिया ॥१६७॥ विळंगु वाळे इरिलगं नक्कुरुमेन तेरिया। पुळकोळ कामुंगिलेन विळिया पोडितेदान् ॥ तुळगु शुक्किल ध्यान वाळक्कर पिडिया। कळकोळ शिदैयन् पसलै निद्दि रेगळं कडिनान् ॥१६॥ अर्थ-अत्यंत तीक्ष्ण दांतों से विद्युदंष्ट्र उपसर्ग करते समय हंसता हा महान क्रोध के आवेश में मेघ के समान गर्जना करते हुए उनके ऊपर और भी अधिक उपसर्ग करने से नहीं रुका। उस समय संजयंत मुनि एकत्व वितर्क वीचार नाम के दूसरे शुक्लध्यान से चलन रहित होकर प्रात्म बल के द्वारा क्षीण कषाय गुरणस्थान के अत में दो समय शेष रहने के बाद प्रचला, निद्रा ऐसे दो कर्मों का नाश किया ॥१६८।। करणं कडंद पिन करणमिस नाळ वरी काना। पिणंगु मिल्ल युळरिविन शेरिवरशैवर् ।। इन वंदै वरिड युरुमबरोडु येदितार् । मनंदु मौवीरेळ वरु कत्तिले मडिदौर् ॥१६॥ अर्थ-तदनंतर दूसरे समय में दर्शनावरणीय के चार, ज्ञानावरणीय के पांच, अंतराय के पांच इस प्रकार चौदह कर्मों की स्थिति में अन्त समय में और नाश किया। दर्शानावरणीय चार प्रकृति हैं-चक्षुदर्शानावरणीय, प्रचक्षुदर्शनावरणीय, अवधिदर्शनावरणीय और केवल दर्शनावरणीय ऐसे चार भेद हैं । ज्ञानवरणीय के पांच भेद हैं-मतिज्ञानावरणीय, श्रुतज्ञानावरणीय,अवधिज्ञानावरणीय,मनःपर्यय ज्ञानावरणीय,केवलज्ञानावरणीय । अंतराय कर्म के पांच भेद हैं- लाभांतराय, दानांतराय, भोगांतराय, उपभोग अंतराय और वीर्यान्तराय ।।१६६।। घाति नालर सेळिदन वळिदखें कैवल प्रोरुनान्मै । पोदि पादिगळ पुरणरंदन पुर्णदलु पुगंदु लकोरु मूंड म् ॥ ज्वोति मामलर शोरिंदु वंदडैदंन रडैदलं तुयदि । तीदु शदवन् ट्रिगत्तनन् ट्रिगट्टिडा निलत्तिड पोइवीळ दान् । १७० अर्थ-ज्ञानावरणीय,दर्शनावरणीय,मोहनीय व अंतराय ऐसे चार प्रकार के कर्मों का नाश होते ही केवल ज्ञान रूपी प्रकाश शीघ्र प्रकट होकर अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत सुख और अनंत वीर्य से चार चतुष्टय प्रात्मा में प्रकट होते ही स्वर्गों के देव आकाश से पुष्प वृष्टि करते हुए संजयंत मुनि के पास आये। तत्पश्चात् वह विद्युद्दष्ट्र विद्याधर उन देवों के प्रभाव से दूर जाकर गिर पड़ा ॥१७०।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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