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मेर मंदर पुराण
[ १०३ प्रारट्टियोंडु कूडा यिनै पड तलव राय ।
बोरेट्ट. विनयर् तम्मै येडुत्तेरिविट्ट, निडान् ॥१६॥ अर्थ-काले मेघ के समान शरीर वाला वह विद्युद्दष्ट्र चारों ओर से उनपर घोर उपसर्ग कर रहा था। बड़े २ वृक्षों को उखाड कर उनपर फेंक रहा था। उस समय संजयंत मुनि अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में प्रस्सी समय शेष रहने पर सोलह कर्म प्रकृति को नाश करके पृथक्त्ववितर्क वीचार नाम के प्रथम शुक्लध्यान में प्रारूढ हो गये।
भावार्थ-सोलह प्रकृति इस प्रकार हैं:
प्रकृतियों के नामः-नाम कर्म में नरकगति, नरक गत्यानुपूर्वी, तिर्यक्गति, तिर्यग्गत्यानुपूर्वी, एकेंद्रिय, दो इद्रिय, ते इद्रिय, चतुरिंद्रिय, पातप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म, साधारण ऐसे यह १३ तथा दर्शनावरणीय कर्म में तीन-निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि ऐसे १६ प्रकृति को नाश किया ॥१६॥
मयक्क पोररसन मक्कळ दंदेनमरतम्मुळोंडि । कयक्कर पोरदुमाय कायदलि मायं व पिन्न ।। बीयक्क नोंदोत्ति बोळ दाळ मेल्लियररुव रोड ।
मुयप्पिळ दोरवनिडा नोरु वुपोर् तोडगि मायं दान॥१६॥ अर्थ-तत्पश्चात् मोहनीय कर्म के संतानरूप में रहने वाले पाठ कषायों को द्वितीय समय में नाश करके नपुंसक वेद तीसरे समय में नाश किया। क्रम से चौथे समय में स्त्रावेद. पांचवे समय में हास्यादि नोकषायों को नाश करके पुरुषवेद का छठे समय में नाश किया।
॥१६॥ कळ मल कवदिर् पेयदु कनमळ यिल्लिर पेयदुं । एल्लंई लिडुवै शंकलिरवन्मे लुराम नोकि ॥ पुल्लियर् पोरादनाल्वर पोर् मुरै मूवर वीळवार् ।
मेल्लिया नोरुवन् वोळदु कडदु पिन मायं दु पोनान् ॥१६७। अर्थ-इतना होने पर भी वह महापापो विद्युद्दष्ट्र असाध्य बाण तथा पत्थर मादि के द्वारा महान दुःख देने के लिए अनेक प्रकार के उपसर्ग करता ही रहा। इतना उपसर्ग करने पर भी संजयंत मुनि को एक भी उपसर्ग मालूम नहीं पड़ा; क्योंकि स्वपरभेद ज्ञानी लोगों को जहां शरीर और आत्मा पृथक २ दीखते हैं, वे अपने निज स्वरूप में मग्न रहते हैं। उनको बाहर में होने वाले उपसर्गों का ज्ञान नही होता। जैसे किवाड बन्द करके अपने मकान में सोने वाले मनुष्य को बाहर की ओर होने वाले पत्थर पोलों को वर्षा का कुछ मालूम नहीं होता उसी प्रकार भेदज्ञान वाला मनुष्य अपने प्रात्मध्यान में लीन हो जाता है उसको बाहर का हाल मालूम नहीं होता। तदनुसार संजयत मुनि ने उपसर्ग की ओर लक्ष्य न देते हुए संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ ऐसे चार कषायों को क्रम पूवक सातवें समय में, और
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