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________________ १०२ ] मेरु मंदर पुराण अर्थ - इस प्रकार नगर के सभी विद्याधर विद्युद्दष्ट्र के साथ मुनिराज पर उपसर्ग करने लगे । वह उपसर्ग सहन करना मुनि के लिये भ्राठों कर्मों की निर्जरा का कारण बन गया और उपसर्ग को सहते हुए संजयंत मुनि प्रपने धर्मध्यान में लवलीन होकर चार घातिया कर्मों का शुक्ल ध्यान नाम के प्रायुष के द्वारा नाश करके कर्मों की निर्जरा करने लगे ।। १६१ ।। वीरन्येर्सेलुं वेगुळि बॅतोइनन् विरेंदे । मारि पोर् पल मलं येडुरोरिदन नेरिय || वीरन् मेर्सेलुं वेगुळिये विलविक पोम्नोर । वार सेंड्रपिम् पमासने परिदेरितिट्टान् ॥ १६२ ॥ अर्थ- - वह संजयंत मुनि अपने शुक्लध्यान में मचल रहे तो भी वह दुष्ट विद्याधर उनपर अनेक उपसर्ग करने लगा, किन्तु इतना होने पर भी उस मुनि पर उपसर्गों का कोई प्रभाव नहीं पडा । उन मुनि महाराज ने क्षमा रूपी खड्ग से ध्यान द्वारा कर्मों का क्षय करके The गुणस्थान को नाश करके प्रप्रमत्त गुरणस्थान को प्राप्त कर लिया ।।१६२ ।। विपुर्वक्क विन्चयर वन् पोळिवनन् विनोर् । कन् पुवैत मयंगिनार सुरिवन् ॥ पम्बु मंतबर् तन्मयु नलयं पाकु । कपर्दककुमो रेळ वरं एक्करण गळितान् ॥ १६३॥ अर्थ-वे दुष्ट विद्याधर लोग मूसलाधार वर्षा के समान बारणों की वर्षा उन मुनि महाराज पर करने लगे । जिससे उस वन के सभी देवी देवतानों ने भी अपनी २ प्रांखें बंद करलीं । उस समय उन संजयंत मुनि ने देव, शास्त्र, गुरु पर सच्चा श्रद्धान रखा और श्रद्धा पूर्वक सप्त प्रकृतियों का नाश किया || १६३॥ Jain Education International • कव्वं नूद्र नेरि कनल् कडुगिनन् कडुग । वेवंतिर् मुनि विनंगळं येळिप्प ने शा । पव्वतूर नूरांबिनं पगं निलं तळरतान् । पुव्वि योनिडूनि येट्टि तनयं पुनर्दान् ॥ १६४ । । धर्व-तत्पश्चात् उस दुष्ट विद्युद्दष्ट्र ने मौर भी प्रत्यंत तेजी से उन संजयंत मुनि को उपसर्ग देना प्रारंभ किया। परन्तु उन मुनि ने अपने धैर्य तथा दृढता से प्रारमा के बल द्वारा सम्पूर्ण अपूर्वकरण गुणस्थान से प्राप्त होकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान को प्राप्त किया ||१६४|| कारमेरिग यांतु कंडव वन । प्रोरिट्ट बिशंगळ गेलुमुरुमेन तोंड़ वीरन् ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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