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________________ १०६] मेह मंदर पुराण इलगु तन्मय इयल्वि लेब्बार्गळ मीयट्र. मरा दिल सेदु । दिलगि निदिई विचितिर किरियै नलवीर्य विरलवेंदे ।१७४ अर्थ-एक समय में तीन लोक को चराचर वस्तु को आपने जान लिया तथा उसकी लम्बाई, चौडाईमौर ऊंचाई प्रादि परमाण से नाप करने वाले ज्ञान को प्र लिया। पाप स्वभाव गुरणों से युक्त अनंत ज्ञान वृद्धि से समस्त जीवों के प्रति हिताहित क्रियामों को परमानंद के द्वारा प्रतिपादन करने वाले हैं। इतना करने पर भी प्राप परवस्तु से भिन्न है। तिलमात्र भो उसका संबंध न होने से प्राप परिग्रही रूप नहीं हैं। उसमे राग परिणति नहीं है, उसमें रहते हुए भी आप सदैव उससे भिन्न हैं। इस प्रकार जगत को प्राश्चर्य करने वाले केवल ज्ञान को प्राप्त किये हुए पाप भगवान हो ॥१७४।। मरंगळ_मायं दिर वान पोरि पॅवयु माट्रिमट बट्टालाम् । मुरयु नींग मूउलगिनोर लोगिन् मुक्कालत्ति निगळ विल्लाम।। उरलु मेलु मिड्रिये योर्गन तोट मैमुदलाय । परियुनिभरि परिवदों ररिवेम तरुळ से यंपेल्याने ॥१७५।। अर्थ-स्वभाव गुणों में प्राकर चिपकनेवाले कर्मों को तथा पंचेंद्रिय विषयों को नाश करके मिश्रित होने वाले कर्माश्रव को रोकने के लिये पंचेंद्रिय विषयों को नाश कर तीन लोक और भूत, भविष्यत्, वर्तमान इस प्रकार तीनों काल में परिवर्तन करने वाले चराचर वस्तु को एक ही समय में जानने का उपमारहित ऐसा केवल ज्ञान प्राप्त हुमा है। उस केवन पान के द्वारा प्राप की सभा में रहने वाले सम्पूर्ण भव्य जीवों को हिताहित का मापने उपदेश दिया ।।१७५॥ पोरिगळारी लेवुलत्तिमार् गतिइन मुबकालतिरुभोग। तुरवि यावयु मुद्र विवत्तिनोड नदिन बंधन योप्पि ॥ दरिइन् मददै यनुवुमा कायम मनय उन् पेरिब । तुरवि युन्नं नो मुन्नुळ ळो यनुवित्त लग उत्तमनीये ।१७६। अर्थ-पंचेंद्रिय विषयों में षड्-इंद्रियों में तथा चार गतियों में तीन ही कालों में भोगोपभोग वस्तुओं को अनुभव करने वाले जीवों के सुखों को अपने सुख के बराबर तुलना करके देखा जाय तो इन संसारी जीवों के सुख अणु प्रमाण भी प्रापके मुख के बराबर नहीं हैं। प्रापका अनंत मुख प्राकाश के समान प्रमयादित है । ऐसे तीन लोक में जो श्रेष्ठ सुख है ऐसे सुख को प्राप्त किये भगवान तीन लोक के नाथ पाप ही हैं। चक्को फरणो सुरेंदजं सुखालयं, तत्तो अनंत गुरिणदो सिदाणं खणं होदि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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