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मेर मंदर पुराण है उनके द्वारा उत्तम मध्यम व जघन्य पात्र को दान देने व अनुमोदना करने से जो पुण्य संपादन होता है उसके कारण से उत्तम, मध्यम व जघन्य भोगभूमि में जन्म लेते हैं। प्राणत, प्राणत, पारण और अच्युत ऐसे चार प्रकार के श्रेष्ठ देव तथा अहमिन्द्र देव तिर्य'च गति में जन्म नहीं लेते। मनुष्य गति में ही जन्म लेते हैं। शेष सौधर्म-ईशान कल्प के रहने वाले सनत्कुमार प्रादि सहस्रार; कल्प के ऊपर रहनेवाले देव वहां से सैनी जीव माकर उत्पन्न होते होते हैं, प्रसनी नहीं।
भावार्थ-एकेन्द्रिय, दो इन्द्रिय, ते इन्द्रिय, चार इन्द्रिय जीत नर्क व देव गति के जीव राग रहित भोगभूमि में जन्म नहीं लेते। कर्म भूमि में उत्पन्न हये मनष्य व तिर्यच जीव उत्तम मध्यम और जघन्य पात्रों को दान देने से पुण्य संचय करके उत्तम, मध्यम और जघन्य भोगभूमि में जन्म लेते हैं । पारगत प्राणत पारण व अच्युत ये चार प्रकार के कल्पवासी देव और महमिन्द्र देव ऐसे पांच प्रकार के देव तिर्यच गति में जन्म नहीं लेते, बल्कि मनुष्य गति में ही जन्म लेते हैं । शेष सौधर्म ईशान कल्प में रहनेवाले सनत्कुमार आदि सहस्रार कल्प के ऊपर रहने वाले जीव वहां से पाकर सैनी जीव उत्पन्न होंगे, मसैनी नहीं। 1 ७४॥
प्ररुगण दुरुवनिल्ला रामवि रतुद्दोंडा। ररुमहर शासरांद मडेवरा जीवरंडि । पिरमरण येदंमाग परिभ्राजगरु शेल्वर् । मरुबर् ज्योति ढांतम् मट्र तापवर्कडामे ॥७॥
अर्थ-तपस्वी दिगम्बर साधु अहमिन्द्र नामक नवें ग्रेवेयिक तथा पंचानुत्तर में जन्म नहीं लेते। जो साधु अच्छे चारित्रवान हैं पर वस्त्र धारण करने के कारण सहस्रार कल्प तक जाते हैं, उससे आगे नहीं। परिव्राजक सन्यासी ब्रह्म कल्प तक जाते हैं, इससे प्रागे नहीं जाते । पंचाग्नि तपनेवाले साधु ज्योतिष कल्प तक जाते हैं।
भावार्थ-जिनेन्द्र भगवान् के रूप को धारण किये हुये तपस्वी मुनि जिनलिंग धारण करनेवाले साधु अहमिन्द्र नाम के नवें वेयिक तक पंचानुत्तर में जन्म नहीं लेते। वस्त्रधारी साधु तपश्चरण करने पर भी सहस्रार कल्प तक ही जाते हैं। परिव्राजक साधु ब्रह्मकल्प से आगे नहीं जाते। पंचाग्नि तपनेवाले साधु ज्योतिषकल्प तक हो जाते हैं ।। ७५।।
नरकाक्षि पुर्डबिलंगुम् मानिडरु बदन सेरिंदु । कादि मुदलाग कपाद मुरच्चल्वर् ॥ नल व सरिद नरर बिलंगु भवनादि ।
कपातम् सासरांतम् कान्बर् मुरै युळिये ॥७६।। अर्थ--सम्यग्दर्शन धारण करनेवाले तिर्यंच प्राणी पांच अणुव्रत को धारण करने पाले सौधर्म प्रादि अच्युत कल्प तक जाते हैं। निरतिचार पंचारणुव्रत को धारण करनेवाले
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