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मेरु मंदर पुराण तुंजिनुं तुंजिडा तुयर माकड।
लेंजलि लायुग मिरक्क मोडि लान् ॥२१६।। अर्थ-इस प्रकार असह्य दुख को सहन करते हुए जब प्यास से उस नारकी की जिह्वा सूख जाती है तब पुराने नारकी यह कहकर कि यह पानी है पीवो और विप को पिला देते हैं, जिसके पीते ही वह नारकी मूर्छा खाकर नीचे गिर पडता है । नरक में अपमृत्यु न होने के कारण वहां के रहने वाले नारकी जीवों द्वारा अनेक प्रकार के दुख उसको भोगना पडता है ॥५१६॥
निड, निडट वें पशियै नोकुवा। नोंडि निडवर निनदिट्ट वक्कनम् ॥ सेंड्, नंजद्दिश युं सेरिविडा।
पोंड निड डट्रिडु कनंदोरु पुगा ॥५२०॥ अर्थ-जब तीव्र क्षुधा उत्पन्न होती है तब विष मिश्रित अन्न उसको देते हैं । उस अन्न के खाते ही पेट में असह्य पीडा व जलन और अनेक प्रकार की वेदना होती है। इससे वह प्रधीर होकर गिर जाता है और तडफडाता है ।।५२०।।
मुळ मिशै मुप्पत्तोर विल्लुयरं दव। नेळु मिशै पुगै मुप्पतोंड, कादमुम् ॥ विळु मुडन् वेंकनल वेन्नै पोंड डे ।
तेळु कडट्रानु मीदवनि यर्कये ॥५२१॥ अर्थ-तीसरे नरक में उत्पन्न हुआ कुक्कुड नामड का सर्प जो शिवभूति मंत्री का जीव था , वह ३१ धनुष उच्छेद ऐसे शरीर को धारण कर जमीन से उडकर वहां से सिर नीचा किये जमीन पर गिर जाता है । ऐसे नारकी की प्रायु नरक में सात सागर की होती है और पायु समाप्त होने तक इसी प्रकार का घोर दुख भोगना पडता है ॥५२१।।
नेरुप्पिन युमिळं बिडं निळल् कळ् पुविकडिल् । विरुप्पुरु मवै विपरीत मायवरु।। सेरुच्चया दारिले तिरियं तीवळी ।
युरैप्प देन वनिनि नरगदुद्दे ॥५२२॥ अर्थ-वह नारकी नरक के दुखों को अर्थात् गर्मी के ताप को दूर करने के लिए एक वृक्ष के नीचे जाकर बैठता है। और बैठते ही हवा चलते ही उस पेड के पत्ते तीक्ष्ण शस्त्र के समान उसके शरीर पर गिर जाते हैं । और शरीर चूर २ हो जाता है । अर्थात् ऐसी अत्यंत गर्म वायु चलती है मानों अग्नि में डाल दिया गया हो। वहां से उठकर मन की शांति के लिये वह और २ जगह जाता है तो कहीं भी कोई शांति का साधन नहीं मिलता है । उस
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