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मेरु मंदर पुराण
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नरक में उप नवीन नारकी जीव के साथ सभी नारकी प्रेम का व्यवहार न करके परस्पर में सभी मिलकर उसको मारते हैं, पीटते हैं । इस प्रकार नरक में रहकर उस मंत्री का जीव नाना प्रकार के दुख भोग रहा है ।।५२२ ।
नागत पोलु नागं नागत्ताल नागमैद । नागत्तै नागं तुयुत्तु नागंदा नरग मेयिद ।। मेसिनोडु तिगळ् बोळं दुडन् किडंद देन्न ।
नागत्तिन् कोंबु मुत्तुम् नरियनुं कुरुवन् कोंडान् ।।५२३॥ अर्थ-पर्वत के समान रहने वाले गंभीर मश्वनो कोड नाम के हाथी के शरीर को कुक्कुड सर्प के द्वारा काटे जाने से वह अन्तिम समय शुभ ध्यान में लीन होकर मरकर देवगति को प्राप्त हुअा। और उस सर्प का जीव बंदर द्वारा मारे जाने के कारण तीसरे नरक में गया। तदनन्तर नर नाम का भील जिस स्थान में वह हाथी मरण को प्राप्त हुना था उस भूमि पर पाकर हाथो के शरीर के दांत व गजमोतियों को चुन २ कर ले गया ।।५२३।।
वंतमु मुत्तम कोंडु पनमित्तन दृम्न कंडु । बेतिरल वेग्नींदु बदुव कोंडु पोनान् । सुंदर मुत्तुं कोंबुम कोंड पिन वनिमन् पूर।
चंदिरन् शरणं सारंदु शालवं शिरप्पु पेट्रान् ॥५२४॥ अर्थ-तत्पश्चात् वह भील गजमोती व गजदन्तों को सिंहपुर नगर में ले गया और वहां धनमित्र नाम के व्यापारी को कुछ गजमोतो व गजदन्त बेच दिये और बाकी बचे उमने अपने पास रख लिए । तदनन्तर वह व्यापारी उन गजमोती व गजदन्तों को उस नगर के अधिपति राजा पूर्णचन्द्र के चरण कमलों में जाकर भेंट किया और आशीर्वाद प्राप्त किया। ५२४।।
पबोनुम् मरिणयुं मुत्तं पवळमुं पयिड मंजिर् । कोवि रंडिनयं नालु कालगळाय कईदु कूटि ॥ वं मरिण मुल नार्गळ् सूळयट्रवनै पेरि ।
कोंबिड पिरंव मुत्त माल कोंडनि विरुदान ॥५२५।। अर्थ-राजा पूर्णचन्द्र हाथी के दांत व मोतियों को देखकर अत्यन्त प्रसन्न हया पौर उस व्यापारी को भेंट स्वरूप कुछ देकर विदा किया। राजा ने मोतियों को पलंग के चारों पायों में भरकर सोने के लिये पलंग तैयार कराया। और बाकी गजमोतियों का कंठ हार बनवाकर गले में धारण कर लिया। विषय भोग में मग्न हुअा जीव क्या २ नहीं करता? सब कुछ करता है। क्योंकि राजा पूर्णचन्द्र को भगवान जिनेन्द्र देव के द्वारा कहे हुए वचनों पर श्रद्धा नहीं थी। हमेशा इन्द्रिय सुख में मग्न रहता था। स्त्री व संसार भोगों की अोर अधिक रुचि थी। धर्म के प्रति उसको श्रद्धा नहीं थी। यह सभी कर्म की विचित्र लीला थी ।।५२५।।
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