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मेरु मंदर पुराण
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ध्यान में रत रहने वाले, अपने पर कोई दुष्ट पुरुष द्वारा उपसर्ग करने पर भी दया भाव रखने वाले, सम्यक्दर्शन, ज्ञान, चारित्र ऐसे अनंत गुणों से युक्त, मोक्ष की इच्छा करने वाले मुनि को दान देना यही सत्पात्र दान है। यह दान इहलोक और परलोक को सुख देने वाला तथा मोक्ष का देने वाला है। ऐसा समझना चाहिए ।। ३५२ ।।
ऊनुडु तेनुंकळळ सुवंदबंप्पिरबु मीदर् ।
ट्रानमेन्ट रेस तम्मे कोन्हयि कूनै ईवार ॥ दानमुं बयाबु मेल्लास् तांकण्डबार कारण । बीनमेन्ालं केळा रियल्लु -वेरुलगसारे ।। ३५३ ।।
धर्व - मधु, मांस, मद्य प्रादि प्रनेक जीव उत्पन्न होने वाले पदार्थ तथा अनन्त काय उत्पन्न होने वाली वस्तु को देना यह दान नहीं है। ऐसा दान देना तथा अपने शरीर का मांस काट कर या दूसरे का मांस काट कर देना यह दान नहीं है । मिथ्या शास्त्र को पढकर दान देने वाले, मिथ्यामतियों के कहे अनुसार चलना, उनको दान देना यह सब मिथ्यात्व है। प्रौर इस प्रकार के दान देने वाले मिथ्यादृष्टि हैं। इसलिए ज्ञानी स्वपर का कल्याण करने वाले संसारी जीवों को सच्चा मार्ग का हित बतजाने वाले महान साधुनों को दान देना उत्तम दान है ।। ३५३ ।।
श्रनधमायनन्तमाय गुरणं पुणं दार्व मादि । तनयिला दियल्व निन्दान् ट्रम्मं तन्कन्वंत्तु ॥
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निनंतेलं केटु नल्ल सिरप्पदु विनयं नोकुं ।
कर्नालिसेर कनगं तनगं तनकन् काळत्रौ कळ ु मारे ।। ३५४।।
अर्थ - निर्दोष, अंतहित ज्ञान गुरप से सहित राग द्वेष से रहित ऐसे सर्वज्ञ श्रहंत देव का स्मरण करना, उनके वचनों पर विश्वास रखना, सम्यक्त्व सहित उनकी भक्ति, पूजा करना, स्तोत्र पढना इसे भक्ति कहते हैं । जिस प्रकार मलिन धातुद्मों से मिला हुआ सोना प्रग्नि की तपत से शुद्ध होता है उसी प्रकार अनादि काल से आत्मा के साथ मलिन कर्म रूपी कालिमा इनकी ध्यान पूजा व भक्ति से नष्ट होती है ।। ३५४
इरैवनु मुनियु नोलु मियादु मोर्कुट्र मिल्ला । नेरियिनं लेळिवल काक्षियामद निरुत्तु स विट्टि || निरुगु मेन्मययं मूडमारु तोबिनय मिन्द्रि । नेरिविळ कुरन्नलादि यटंम निरंद वेन्द्रान् ॥ ३५५॥
अर्थ - परमात्म स्वरूप भगवंत को अंतरात्मा में रखकर उनका ध्यान रखने वाले निग्रंथ गुरुयों को तथा सभी वस्तुनों का परिज्ञान करा देने वाले परमागम को अर्थात् शास्त्र (जिनवाणी) को संशय रहित होकर उसका ज्ञान कर लेना, संशय रहित श्रद्धा करना यह
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