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________________ १९२ ] मेर मंदर पुराण कडगमु मुग्युिं सिंद कर्पगं पोन वेळदु। पडिविशे किडंद वीरन परिजन ते तेरि ॥ अडियनेन पिळत्त देनकोलडि कनिर तुरत्तर केन्न । नेडिदु नी हरैय्य नींगळ पिळत्तदोंडिल्ल एंडाळ ॥४००॥ अर्थ-कुमार सिंहचन्द्र के मूच्छित होने से शिर के पाभरण मुकुट हार आदि इधर उधर बिखर गये और वह मूच्छित पडा रहा । उस समय वहां की दासियों प्रादि ने शीतोपचार से कुमार को जागृत किया। तब वह सिंहचन्द्र माता से प्रार्थना करने लगा कि हे माता ! आप इस राजमहल को छोडकर जाने की इच्छा कर रही है, सो मेरे द्वारा ऐसा कौनसा अपराध हो गया है ? तब माता कहने लगी कि हे पुत्र आपने कोई अपराध, भूल व गलती नहीं की है । किंतु मेरे मन में प्रात्म-कल्याण करने की तथा इस पर्याय से आगे की पर्याय का तपश्चरण के द्वारा सुधार करने की भावना उत्पन्न हुई है, और कोई दूसरी बात नहीं है ।४००। मरं पुरिदिलंगु वैवेल मन्नवन् देवि युळ ळं । तिरपुरिदेळद वण मरिद पिन सीय चंदन ॥ रुरंग पुरिदरिगळंड, तोळ दोउन् पडलु नील । निरंपुरिदेळंद वैबा नेरि मैई नीकितारे ॥४०१॥ अर्थ-रामदत्ता नाम की पटरानी के इस प्रकार तपश्चरण करने के विचारों को सुनकर कुमार ने कहा कि आप घर में ही रह कर पडोस के मंदिर में विराजकर धर्म साधन करो ताकि हमको भी प्रापकी सेवा का और धर्मोपदेश सुनने का अवसर मिले। हम अज्ञानी कुमारों को एकदम छोडकर प्रापका जाना ठीक नहीं। इस प्रार्थना को सुनकर माता कहने लगी कि बेटा तुम ज्ञान के भंडार हो । प्रजा वत्सल ज्ञानी, दान व धर्म में लीन हो राज्य कार्य में चतुर व निपुण हो । मुझे शीघ्र स्वीकृति दो। इस प्रकार अपने पुत्र को कहकर संतोषित किया। सिंहचन्द्र ने अपने मन में विचार किया कि मेरी माता ने तप करने का दृढ विचार कर लिया और यह रुकने वाली नहीं है। ऐसा समझकर माता को दीक्षा लेने की स्वीकृति दे दी। वह माता अपने छोटे पुत्र पूर्णचन्द्र से पूछकर वन की मोर चली गई और वहां विराबने वाली प्रायिका माता से दीक्षा लेने की प्रार्थना की ॥४०॥ प्रनिचत्तं पोदु कोइवार पोलमी मयिर बांगि । परिणचप्पं येनय कोंगै पारिण निर परत्तिन बोकि ।। सनि चित्त बैत नंगै तामर पूवि मन्न। पनि सुत्तन् सूट्टवेळ विहाबोर परिवाळ ॥४०२॥ अर्थ-तब मायिका ने रामदत्ता देवी के मन में तीव्र वैराग्य की भावना को देखकर उसको तथाऽस्तु कहकर दीक्षा की अनुमति दी। उसी समय मारिका माता की अनुमति मेकर रामदत्ता ने अपने शरीर के वस्त्र माभरण मादि को उतार दिया,और उन्हें त्याग करके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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