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________________ मेर मंदर पुराण [ १६१ तुवर पर्श नागिर ट्रोय विलच्य मुंडागि नाळ । यवत्तमे पोकिजादे येम्मै मुम्माटर केट। तवत्तोडु विरदं शीलं तक्क न तांगि सिद। युवोड्डु वेरुप्पि नोंडि युरुदिक्क नुळक्क वेडार ॥३६७॥ अर्थ-हे देवो! क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार प्रकार के कषायों से उत्पन्न होने वाले कृष्ण, नील और कापोत इन तीन लेश्याओं के दुष्परिणामों को व्रत विधान के द्वारा क्षय करना, पांच अरगुवत तीन गुणवत, चार शिक्षा व्रत ऐसे बारह व्रतों को ग्रहण कर शक्ति के अनुसार तपश्चरण करना ही दुखों का नाश करने वाला मुक्ति का मार्ग है। अतः समस्त सांसारिक भोग सामग्री आदि का त्याग करके संतोष पूर्वक धर्म ध्यान के मार्ग को स्वीकार करना चाहिये । ऐसा प्रायिकाओं ने उपदेश दिया ।।३६७॥ अरुन्तवतार्गळ सोल्लि केटलु निरामइ सित्त। निरुलिय तवत्तदागि बेदन मगर्नकूवि ।। पोरु दिय सेल्वं सुटे पोपुदं पोल मायुं । पिरु विम गुणत्तिनाय नी तिरुवरम् मरव वेडाळ ॥३९८॥ अर्थ-इस प्रकार दोनों प्रायिकाओं ने रामदत्ता देवी को उपदेश देकर उनके दुख को शांत किया। धर्मोपदेश सुनने के पश्चात् उस रामदत्ता माता की इच्छा प्रायिका के धर्मोपदेश के अनुसार द्रत पालन करने की हुई। तदनन्तर वह अपने ज्येष्ठ पुत्र सिंहचन्द्र को बुलाकर कहने लगी कि हे सद्गुरण शिरोमणि कुमार सिंह चन्द्र यह संपत्ति माल, खजाना, हाथी, घोडे सेना आदि सब क्षणिक हैं । इसमें रत होकर जिनेंद्र भगवान द्वारा कहे हुए सद्धर्म मार्ग को कभी भूलना नहीं चाहिये । अब मेरे मन में संयम धारण करने की भावना जागृत हुई है। ।।३६ एंडलु मजि नेज तिळन् शिंगनडप्पदे पोर् । सेंड वन पळिदेळदूं सेप्पिय देनकोलेन । मिडिगळ पूनि नाळ मेल वित्तवं तोडगि नोदर् । कोंडिय दुळ्ळ मेन उसमुद्र नाग मोत्तान् ॥३६॥ अर्थ-इस प्रकार माता के वचनों को सुनकर वह सिंहचन्द्र मन में प्रत्यन्त भय. भीत होकर माता के चरणों में नमस्कार करके खडा होकर पूछने लगा कि हे माता! मापने जो बात कहो वह मेरे समझ में नहीं आई। आप क्या कह रही हैं ? इसलिए पाप मुझे मन्यो तरह से पुनः कहो। ऐसी प्रार्थना की तब वह रामदता देवी सुनकर कहने लगी कि हे पुत्र ! संसार प्रसार है, सर्व वस्तु क्षण भंगुर हैं मेरे मन में संयम भाव ग्रहण करने की इच्छा हुई है। माता के ऐसे वचन सुनकर सिहचन्द्र कुमार अत्यन्त शोकाकुल होकर मूच्छित होकर नीचे गिर गया ।।३६६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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