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मेह मंटर पुराण
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अंजिनान माटे चाल वरंगि नान कुलंगडं में । नंजये पोलु मेंड, नईगि नान् दोंडगंल सैयान् ॥ वंजमुं पडिरं पदमं सेटमुम् कळिप्पु मादि।
पंचनु वदंगळो? सोलंगळू पईड, सेंडान् ॥५३५॥ अर्थ-राजा पूर्णचन्द्र ने विचारा कि संसार महान दुख का कारण है। प्रतः इससे भयभीत होकर पंचेंन्द्रिय सुख को नाशवान समझकर इन्द्रिय संयम और प्राणि संयम को पालन करने वाला हो गया। और मिथ्यात्व, माया, असत्य, निदान, क्रोध, मान, माया, लोभ आदिको त्याग कर उन्होंने सप्तशील को धारण किया । अर्थात् अणुव्रत धारण किया। ५३५॥
शित्तम मुळिकन् मंदिर जिनवरन् सेलू पुदम् । मत्तगनिदु नांदु मंगल पयिड, वैय्यत् ।। दुत्तमर् तम्म येत्ति शरणं पुकार योंबि ।
तत्वं पदंड, वानं तवत्तोडु क्याविर् संहान् ॥४३६॥ अर्थ-तदनन्तर मन, वचन काय के द्वारा अहंत भगवान का स्मरण करने लगा। पाप के नाश करने वाले चत्तारि दंडक को स्मरण करने योग्य अहंत, सिद्ध,प्राचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधु ये पांच परमेष्ठी हैं । मेरी आत्मा की रक्षा करने वाले हैं । और कोई नहीं है। ऐसा विचार करके रक्षा मंत्र का जाप्य करने लगा। और शक्ति के अनुसार जीवों की रक्षा करते हुए संयम पालन करने वाला हो गया ।। ५३६।।
इरै वन दरत्तै दल सेरं दपिनि राय दत्त । करकेळु वेलिनाने केविडादिरंदु नोट.॥ निरैयळि कालाले निदानत्तु निड, सेडाळ ।
करैइला वायु नींगि कर्पमा सुक्किलत्ते ॥५३७॥ अर्थ-सर्वज्ञ वीतराग देव का कहा हमा जिनधर्म उस पूर्णचन्द्र को उनकी माता रामदत्ता प्रायिका ने सुनाया और अपने पुत्र को वहीं छोडकर उसी राजमहल में ही रह गई । और राजमहल में रहकर सभी प्रणवतों को उनका प्राचरण कराने लगी। उनकी माता ने विचारा कि अगले भव में यह पूर्णचंद्र मेरे गर्भ से जन्म ले ऐसा मोह के उदय से उसने निदान बंध कर लिया। तत्पश्चात् इस पंच अणुव्रत के प्राचरण के फल से मायु के अन्त में उस माता ने समाधिमरण करके महाशुक्र कल्प नाम के दशवे स्वर्ग में जाकर जन्म लिया। मोह की महिमा अत्यन्त विचित्र है। इस जीव के संसार में परिभ्रमण करने के लिये प्रारमा के साथ शत्रु के समान यह मोह कर्म लगा हुआ है । इस कारण यह जीव संसार में मोह के कारण दुख को दुख ना समझ कर सुख मानता है । फल स्वरूप अनादि से माज तक अनेक प्रकार के दुख उठा रहा है। परन्तु मोह रूपी बंधन से दुख उठाकर भी प्रखंड अनिवाशी प्रात्मसुख को प्राप्त करना नहीं चाहता है ।।५३७।।
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