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मेरु मंदर पुराण पैयर विन विडत्तोडु पार मिशै । मैयलुत्त वेळंदनन् मन्नवन् । वेय्यवनर वत्तोडु मेदिनि ।
वैश्य नेय्य विछंददु पोलवे ॥३७६॥ अर्थ-वह राजा उस सर्प के विष से ग्रसित होकर जैसे अंधकार फैल जाता है, उसी प्रकार राजा का शरीर विष से अंधकार के समान काला पड़ गया। वह विष इतना भयंकर था कि सारे तोषाखाने में अंधकार सा छा गया। वह राजा विष से मूछित होकर गिर गया ॥३०६॥
कलन नोस कडलुडंदिट्टन । वेल्लइडि येळंद दिया वरुन् । सोनुमेय्यु मरंद नर् सोरं द नर । मल्लियलगु पुत्तिरन मैंदरं ॥३७७॥
अर्थ-उस सिंहसेन के मूछित होकर जमीन पर गिर जाने के बाद जिस प्रकार तालाब का बांध टट जाने पर पानी इधर उधर फैल कर बेकार हो जाता है उसी प्रकार राजा को सर्प के काटने के समाचार सब जगह फैल गये। और कुटुम्बी जनों में हाहाकार मच गया। कर्म की गति बडी विचित्र होती है। मोहो जोव इस मोह के कारण कौन से अनर्थ नहीं करता है ? अर्थात् सभी करता है। क्योंकि उस शिवभूति मंत्री ने माया, छल, कपट, लोभ के द्वारा भद्रमित्र वणिक के रत्नों का अपहरण करके गुप्त रीति से अपने खजाने में रखे थे। परन्तु यह मायाचार कितने दिन रह सकता था। उन रत्नों को अपने निजी पुरुषार्थ से उसने नहीं कमाया था। दूसरे के रत्न होने से उन रत्नों का न्यायपूर्वक राजा ने निर्णय करके भद्रमित्र बणिक को दिलवा दिये थे। फिर भी उन रत्नों के मोह से वह मंत्री प्रार्तध्यान से मरकर सर्प होकर उस सिहसेन राजा के खजाने में बैठा था। उसने यह निदान बंध कर लिया था कि किसी भव में मैं इससे बदला लूगा। इस निदान बंध से खजाने में बैठ कर सर्प होकर उसको काट खाया। यह परिग्रह रूपी पिशाच बड़े २ चक्रवर्ती त्यागी गणों को भी नहीं छोडता है ॥३७७॥
रामदत्तेयु मिन्नोइ रंडिनाल । विराम मुद्दोर मैंगइन वीळं द नल् ॥ करामरी कडल सूळ पडि कावल। निरामे मार पगलं मिरवायते ॥३७८।।
अर्थ-राजा सिंहसेन की यह दशा देखकर उस रामदत्ता देवी का राजा के प्रति अधिक प्रेम होने के कारण वह रानी मूर्छित हो गई और दुख से व्याकुल होकर गिर पड़ी। सिंहपुर नगर के अधिपति राजा सिंहसेन के मूर्छित होने के कारण राजमहल व सारे नगर में दिन भो रात्रि के समान प्रतीत होने लगा ॥३७८।।
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