________________
मेरु मंदर पुराण
[ १८१ अर्थ-वह राजा सिंहसेन व महारानी रामदत्ता दोनों सुख से समय व्यतीत करते थे। प्रानंद के साथ दोनों दम्पति का समय व्यतीत हो रहा था। इसी समय में रामदत्ता रानी ने पूर्णिमा के चंद्रमा के समान दूसरे पुत्र रत्न को जन्म दिया ।।३७२।।
इरवलरेंड. मुनि रिउर् केर वेब बंद । पुरवल कुमार नामं पूर चंदिर नेडागळ ॥ करयोर कडलंताने कावल कुमरर वान । दिरवियु मवियु पोल विरुनिल विचळु नाळाल् ॥३७॥
अर्थ-दूसरे पुत्ररत्न का जन्म होने के बाद सिंहसेन राजा ने उसको देखा और पुत्र जन्मोत्सव की खुशी में प्रजाजन व यांचकों को ऐच्छिक दान दिया और विधिपूर्वक नामकरण संस्कार करके उसका नाम पूर्णचंद्र रखा। वह सिंहचन्द्र और पूर्णचंद्र दोनों राजकुमार जिस प्रकार प्राकाश में सूर्य और चंद्रमा हैं उसी प्रकार वह राजा दोनों कुमारों के साथ मानंद पूर्वक समय व्यतीत करता था ।।३७३।।
वारि सूळ वलयन तुयरविडिर । रारि यामदु तानुडनविडं। एरनिदुल गिन पुरि निबुरु। मारि पोर कोडे बंग यम्मन्नने ॥३७४॥
अर्थ-इस प्रकार राजा सिंहसेन अपना समय सुख पूर्वक व्यतीत कर रहा था। समुद्र से चारों ओर घिरे हुए उनके राज्य में प्रजा को यदि थोडा सा भी दुख हो जाता था तो राजा को वडा भारी दुख होता था। तथा जिस प्रकार मेघ वर्षा करके सारी दुनिया को प्रसन्न करता है उसी प्रकार वह सारी प्रजा को हर प्रकार से प्रसन्न और तृप्त रखता था। प्रजा के दुःख को दूर करने वाला तथा प्रजा के लिए बह हितकारक राजा था ।।३०४॥
पोन्नु नन्मणियुं पुनै पूनगर्छ । मण्णु पुण्णर मदोरु नाळपुग ।। पन्नगं मुन्न मामवन पातिडा। मिनिन रत्तिर बीळं देई रूट्रिनान् ॥३७॥
अर्थ-राजा सिंहसेन एक दिन अपने स्वर्ण, रत्न, मोती, मारणक तथा अमूल्य प्राभूषण, वस्त्र आदि से भरे हुए भंडार के तोषाखाने में सहज ही चला जाता है तो पूर्व जन्म में शिवभूति मंत्री का जीव जो मरकर प्रार्तध्यान से सर्प हो गया था वह वहां बैठा हुमा था। उस सर्प ने राजा को देखा और देखते ही पूर्व भव का बैर का स्मरण हो गया और तत्काल राजा को काट खाया । सर्प को काटते ही राजा को विष चढ गया॥३७॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
. www.jainelibrary.org