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मेर मंदर पुराण
गुरुकुल में भरती कराया। तब वहां के अध्यापक ने अनेक प्रकार के शास्त्र, न्याय, तर्क,व्याकरण व शस्त्र कला आदि २ में उसको निपुण कर दिया । संसार में सबसे श्रेष्ठ एक विद्या ही महान धन है और कोई नहीं है। इस कारण विद्या वाले के पास सभी गुण पा जाते हैं। कहा भी है:
विद्या ददाति विनयं, विनयाद्याति पात्रता ।
पात्रत्वात् धनमाप्नोति धनाद्धर्मं ततः सुखं । अर्थ-विद्या से विनय पाता है, विनय से पात्रता प्राती है और पात्रता प्राने से धन संचय होता है । और धन से धर्म की प्राप्ति होती है और धर्म के द्वारा इस लोक और परलोक का साधन है।
विद्याधीत्यापि भवंति मूर्खाः ।
यस्तु क्रियावान् पुरुषः स विद्वान् ।। अर्थ-कदाचित् विद्या सीखने पर यदि उसको अभिमान उत्पन्न हो जाय तो उसको मुर्ख के समान समझना चाहिये । विद्या पढने के बाद जिनमें समता नहीं है वह विद्या किस काम की? विद्या पढने के पश्चात् जो सत्क्रियावान होता है तो वह विद्या उसको सदैव के लिये सुख देने वाली है।
सुखार्थिनः कुतः विद्या, विद्यार्थिनः कुतः सुखम् । तथाच
मातेव रक्षति पितेव हिते नियुक्त । कांतेव चामिरमयत्यनीय खेदं। लक्ष्मी तनोति वितनोति च दिक्षु कीर्ति ।
किम् किम् न साधयति कल्यलतेव विद्या। इस प्रकार राजा ने विचार करके अपने पुत्र को सम्पूर्ण विद्याओं में निपुण करा दिया। वह कुमार विद्यानों को प्राप्त करता २ यौवनावस्था को प्राप्त हुआ। राजा ने विचार किया कि कुमार यौवनावस्था को प्राप्त हो गया है इसका अब लग्न करना चाहिये। तत्पश्चात शुभ मुहूर्त में उसका लग्न कर दिया । वह सिंहचन्द्र अत्यन्त सुगंधित पुष्प में जैसे भौंरा मग्न होकर उसका रस लेता है तथा जैसे नदी का मध्य भाग कृश हो गया है, ऐसी नदी के किसी गहरे कुड में लोग क्रीडा करते हैं, उसी प्रकार वह राजकुमार अपनी स्त्री के साथ काम भोग में रत रहने लगा ।।३७१॥
शिलमरल शूळ सिंघ पोदगत्तै पोल । कल पइललगु ला कूमर- कळमु नालुळ ॥ कोले पइल कळिनल याने कोट्रवन् देवि ननपान । मले मिशै मदियं पोल मैंदन मट्रोरुवन् वेदान् ॥३७२।।
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