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________________ ४८२ ] मेरु मंदर पुराण में जन्म लेकर राजा महाराजा तथा तीर्थकर तक होते हैं, और क्रम से मोक्ष को जाते हैं। ॥१३०७॥ येन्वर्ग वियंदरर् किड मिदागवू । पन्नवर् पनित्तनर पल्ल मायुग ॥ मुन्निलतेंगनु मुरव रोकमुं। पण्णुरु शिलंगळ पत्तागु मेवंवे ॥१३०८॥ मर्थ-पाठ प्रकार के देव इसी मध्य लोक में रहने वाले देव हैं, ऐसा भगवान ने कहा, मोर व्यंतर देव का शरीर आठ धनुष प्रमाण होता है ।।१३०८।। पाईरं योजन याळ्द दोंगिय । ताईर मिलाद नूराइरं पुगे । यायिरं पत्तडि यगल मायदु । मेय नाल् वनत्तदु मेरु वेबवे ॥१३०६॥ अर्थ-पृथ्वी के नीचे महामेरु पर्वत की एक हजार यौजन पीठ है-नींव है। इस मेरू पर्वत की बड की चौडाई दस हजार नव्वे योजन है प्रोर क्रम से घटते घटते भूमि के ऊपर दस हजार योजन विस्तार है और भूमि पर भद्रशाल वन है। इससे ऊपर दस हजार योजन की चौडाई पर नंदन वन है। जिनके ऊपर सौमनस और पांडुक वन है। ऐसे चार वन हैं। ॥१३०६॥ तुगनिल मोदु पत्तिलाद वेण्ण रु नर । पुगै मिर्श नट्रोरु पत्तु वान पुगे ।। इगळविला जोतिड रोलकै यिट्रल्लै । यगनिलत्ति यंगु वर पुरत्तु निर्परे ॥१३१०॥ अर्थ-चित्राभूमि के ऊपर सात सौ नम्वे योजन के ऊपर एक सौ दस योजन तक ज्योतिषी देव.रहते हैं। मध्यलोक के अढाई द्वीप में ज्योतिषी देव गमन करते हैं। मानुषोत्तर पर्वत के वाह्य प्रदेश में ज्योतिषी देव स्थिर हैं ॥१३१०॥ इरवि पत्तिन् मिस येनवदिन मिशे। येरविदं पगवना मीन्ग नान् मिशे॥ युरै शंद पुदर् कुयर् नानगु मंडिन् मेल। विरगि नाल वेळि ळ याळ शोव्वाय शनि ॥१३११॥ अर्थ-पहले कहा हा सात सौ नव्वे योजन पर तारागरण हैं। उससे ऊपर दस योजन जाकर सूर्य का विमान है। उससे अस्सी योजन जाकर चंद्रमा का विमान है। चंद्रमा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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