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मेरु मंदर पुराण निवास करते हैं। इस कारण लोक का अग्रभाग भी उपचार से मोक्ष कहलाता है। जैसे कि तीर्यभूत पुरुषों के द्वारा सेवित भूमि पर्वत आदि स्थान उपचार से तीर्थ होते हैं। यह वर्णन सुगमता से समझाने के लिये किया गया है। जैसे सिद्ध अपने प्रदेश में रहते हैं उसी प्रकार निश्चय नय से सभी द्रव्य अपने-अपने प्रदेशों में हैं तो भी उपचरित असद्भूत व्यवहार नय से लोकाकाश में सब द्रब्य रहते हैं ।।.॥
अंदर दरवत्त मूदागिय । विंदर पडलमुं निरैय मेळ्गळुम् ॥ मंदर मलै मण्णुमत्त निड्डा ।, वंद मिनिलय तन्मत्ति इल्ल येल् ॥६॥
अर्थ-अन्त रहित अधर्मास्तिकाय यदि नहीं रहेगा तो प्राकाश में रहने वाले स्वर्ग अर्थात् १६ स्वर्ग, ७ नरक मेरु पर्वत, कुल गिरि पर्वत तथा पृथ्वी आदि सभी वस्तुओं का अभाव हो जाएगा। यदि यह अधर्म द्रव्य नहीं होगा तो यह कभी स्थिर नहीं रह सकेंगे ।
परवे इन सिर गीड पाद निड लि। नेरियि नार शेलवोडु निलय याकुमा । लुरवि पुर्कल मिवैयोड निट्रले । शेरिवरि तम्म तम्मतुत्ति सेय्युमें ॥२॥
अर्थ-पक्षी के उड़ने के लिये.जैसे पंख आदि तथा खड़े होने के लिये पांव निमित्त होते हैं उसी प्रकार जीव के गमन स्थिरता के लिये धर्मास्तिकाय एवं अधर्मास्तिकाय सहायक हैं ॥२॥
अविडि येत्ति याय मूर्ति यादिया । गुळवेंड पोरुटकेळा मिडङ कोडुत्त उन् ।। ट्रलर विडि निर्पदा कामं साविना। लळविला कालत्तोड जीवनेंदुमे ॥३॥
अर्थ-असंख्यात अस्ति स्वरूप रहने वाले प्रमूर्तिक तत्व, अति सूक्ष्मत्व, अगुरु लधुत्व, अवगाहन, लघुत्व इन गुणों को प्राप्त करके इस लोक में रहने वाले सभी जीवों को अवगाहन शक्ति देने वाला आकाश द्रव्य है। पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये पांच प्रजोव द्रव्य हैं ||३||
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