SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 108
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मेरु मंदर पुराण [ ६७ सविकल्प अवस्था में सिद्ध भी जैसे भव्य जीवों के लिये बहिरंग सहकारी कारण होते हैं उसी तरह अपने २ उपादान कारण से अपने प्राप ठहरते हुये जीव पुद्गलों को अधर्म द्रव्य ठहरने का सहकारी कारण होता है । लोक व्यवहार से जैसे छाया अथवा पृथ्वी ठहरते हुये यात्रियों आदि को ठहरने में सहकारी होते हैं उसी तरह स्वयं ठहरते हुये जीव पुद्गलों के ठहराने में धर्म द्रव्य सहकारी होता है । इस प्रकार अधर्म द्रव्य के कथन द्वारा यह गाथा समाप्त हुई । 115511 श्ररुवदाम् पोरुलुलगत्त विल्लये । लळविला कायेत्ति लनु क्कळोडइ ॥ रळवला विड़िये येiडू पोप पिन् । तुळवल कसु वीडुलग तोडमे ॥८६॥ अर्थ-धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय न होने से अनंत रूप श्राकाश में तथा प्ररगुरूप में रहने वाली कर्मवर्गणा उस प्रकाश में प्र गुरूप होने वाले कर्म परमाणु के साथ जीव परस्पर न मिलने से इस जगत में लोक, बंध, मोक्ष सभी का प्रभाव हो जायगा ॥८९॥ अच्चु नीर् तेरोडु मीनं ईर्तिडुं । अच्चु नीर् इंड्रिये तेरुमीनुसेला ॥ बच्चु नीर् पोल तन्मत्ति शेरलं । इच्चे युं मुपच्चि यु मिड्रि याकुमे ॥६०॥ अर्थ - जिस तरह गाडी चलाने के लिये रथ में लोहे की धुरी सहायक होती है उसी प्रकार जीव और पुद्गल के गमन के लिये धर्मास्तिकाय सहायक होता है। इसके अतिरिक्त कोई अन्य सहायक नहीं होता । भगवान् स्वम्भू राजा वैजयन्त को यह बतला रहे हैं कि हे भव्य शिरोमणि ! जीवादि द्रव्यों को अवकाश देने की योग्यता जिस द्रव्य में है उसको श्री जिनेन्द्र भगवान् ने प्रकाश द्रव्य कहा है । वह श्राकाश लोकाकाश और अलोकाकाश इन दो भागों में है । अब इसको विस्तार के साथ कहेंगे । स्वभाविक शुद्ध सुखरूप प्रमृतरस के प्रास्वाद रूप परम समरसी भाव से परिपूर्ण तथा ज्ञान प्रादि अनन्त गुणों के प्राधारभूत जो लोकाकाश प्रमारण प्रसंख्यात प्रदेश अपनी आत्मा के हैं उन प्रदेशों में यद्यपि विश्ववन्द्य सिद्ध जीव रहते हैं तो भी sौपचारिक प्रसद्भूत व्यवहार नय की अपेक्षा से सिद्ध मोक्ष शिला में रहते हैं, ऐसा कहा जाता है। इस प्रकार पूर्व में कहा जा चुका है । Jain Education International ऐसा मोक्ष वहीं है और कहीं नहीं होता। ध्यान करने के स्थान में कर्म पुद्गलों को छोड़कर तथा ऊर्ध्वगमन स्वभाव से गमन कर मुक्त जीव ही लोक के प्रग्रभाग में जाकर For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy