SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 107
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ : ६६ ] मेरु मंदर पुराण तथा अन्यत्र भी सूर्यकान्त मरिण आदि पृथ्वीकाय में होने वाले को प्राताप जानना चाहिये । सारांश यह है कि जिस प्रकार शुद्ध निश्चय नय से निजात्मा की उपलब्धि रूप सिद्धस्वरूप श्राकार में स्वभाव व्यजन पर्याय विद्यमान है, फिर भी अनादि कर्म बंधन के कारण पुद्गल के स्निग्ध तथा रूक्ष गुगा के स्थान रूप रागद्वेष के परिणाम होने पर स्वाभाविक परमानन्द रूप एक स्वास्थ्य भाव से भ्रष्ट हुये जीव के मनुष्य नारक आदि विभाव व्यंजन पर्याय होती है उसी प्रकार पुद्गल में निश्चय नय की अपेक्षा शुद्ध परमाणु दशा रूप स्वभाव व्यंजन पर्याय के विद्यमान होते हुये भी स्निग्ध तथा रूक्ष से बंध होता है । इस वचन से राग और द्व ेष के स्थानीय, बंध योग स्निग्ध तथा रूक्ष परिणाम के होने पर पहले बताये गये शब्द प्रादि के सिवाय अन्य भी शास्त्रोक्त सिकुड़ना, फैलना, दही दूध आदि विभाव व्यंजन पर्याय आदि को जानना चाहिये || ८७ श्रत्तिया यमुर्तिया येळविरेशिया । यात्तळ उलगि नोडुलग लोगमम् ॥ तत्त बंदने सेवु लन्म तन्ममा । मसिगळ् शेल वोडु निलयिर् केदुवाम् ||८८ ॥ अर्थ - अस्ति स्वरूप से युक्त प्रभूतं तथा असंख्यात प्रदेश से युक्त यह प्रात्मा लोक जितना प्रमाण है उतने लोक में उतने प्रमाण भरे हुये धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय इस जीव और पुद्गल के गति-स्थिति में सहायक रूप होते हैं । भावार्थ - प्राचार्य ने इस श्लोक में धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय का स्वरूप बतलाया है कि जीव तथा पुद्गल को चलने में सहकारी धर्म द्रव्य होता है । इसका दृष्टांत यह है कि जैसे मछलियों के गमन में जल सहायक है, परन्तु स्वयं ठहरे हुये जीव पुद्गलों को धर्मद्रव्य गमन नहीं कराता तथापि जैसे सिद्ध भगवान श्रमूर्त्त हैं क्रिया रहित हैं, तथा किसी को प्रेरणा भी नहीं करते, तो भी, "मैं सिद्ध के समान अनन्त ज्ञानादि गुणरूप हूँ" इत्यादि व्यवहार से सविकल्प सिद्ध भक्ति के धारक और निश्चय से निर्विकल्प ध्यान रूप श्रपने उपादान कारण से परिरात भव्य जीवों को वे सिद्ध भगवान् सिद्ध गति में सहकारी कारण होते हैं । ऐसे ही क्रिया रहित, अमूर्त, प्रेरणा रहित धर्म द्रव्य भी अपने अपने उपादान कारणों से गमन करते हुये जीव तथा पुद्गलों को गमन में सहकारी कारण होता है । जैसे मत्स्य श्रादि के गमन में जल प्रादि सहायक कारण होने का लोक प्रसिद्ध दृष्टांत है । इस तरह धर्म द्रव्य के व्याख्यान के साथ यह गाथा समाप्त हुई । Jain Education International सारांश यह है कि - पुद्गल तथा जीवों को ठहरने में सहकारी कारण प्रधर्म द्रव्य है जिसका दृष्टांत इस प्रकार है कि जैसे छाया पथिकों के ठहरने में सहकारी कारण है, परन्तु स्वयं गमन करते हुये जीव व पुद्गलों को प्रधमं द्रव्य नहीं ठहराता । ऐसे ही निश्चय नय से प्रात्म-अनुभव से उत्पन्न सुखामृत रूप जो परम स्थास्थ्य है वह निज रूप में स्थिति का कारण है परन्तु "मैं सिद्ध हूं, शुद्ध हैं, अनन्त ज्ञान आदि गुणों का धारक हूं, शरीर प्रमाण हूँ, नित्य हूँ, प्रसंख्यात प्रदेशी हूं, तथा प्रमूर्तिक है। इस गाथा में कही हुई सिद्ध भक्ति के रूप से पहले For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy