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________________ मेरु मंदर पुराण [ ६६ -~~~- ~ करणं वळिवुइ' तोव मिलवमे नाळि मूळ त । मिनइ नाळ पक्कं तिगं लिरदु वे ययन मांडु ॥ पने युगं पूर्व पल्ल पव्वमे येनंद मीरा। करण मुदर् काल भेदम् सोल्लरिर् काल मिल्लै ॥१४॥ अर्थ-कालद्रव्य-एक निश्चय और एक व्यवहार ऐसे काल के दो भेद हैं। जो द्रव्य परिवर्तन रूप है वह व्यवहार रूप काल है । ऐसा कैसे है ? सो वतलाते हैं । परिणाम, क्रिया, परत्व अपरत्व से जाना जाता है । इसलिये परिणाम आदि से लक्ष्य है। निश्चय काल-जो वर्तना लक्षण वाला है वह परमार्थ काल है। विशेषार्थ-जीव तथा पुद्गल का परिवर्तन रूप नूतन तथा जीर्ण जो पर्याय है उस पर्याय का समय घड़ी आदि रूप स्थिति है स्वरूप जिसका वह द्रव्य पर्याय रूप व्यवहार काल है । अर्थात् जो स्थिति है वह काल संज्ञा है, द्रव्य की पर्याय को सम्बन्ध रखने वाली जो यह समय धड़ी आदि रूप स्थिति है वही व्यवहार काल है । पर्याय व्यवहार काल नहीं है, क्योंकि पर्याय सम्बन्धी स्थिति व्यवहार काल है । इसी कारण जीव और पुद्गल के परिणमन रूप पर्याय से तथा देशांतर में आने जाने रूप अथवा गाय दुहने व रसोई करने आदि हलन चलन रूप क्रिया से तथा दूर या समोप देश में चलन रूप काल कृत परत्व तथा अपरत्व से एक काल जाना जाता है । इसलिये यह व्यवहार काल परिणाम क्रिया परत्व तथा अपरत्व लक्षणवाला कहा जाता है। अब द्रव्य रूप निश्चय काल को कहते हैं: अपने २ रूप उपादान कारण से स्वयं परिमणन करते हुये पदार्थों को जैसे कुभकार . के चाक के भ्रमण में उसके नीचे की कील सहकारिणी है तथा जैसे शीतकाल में पढ़ने के लिये अग्नि सहकारिणी है उसी प्रकार पदार्थों के परिणमन में भी काल सहकारी है । उसको वर्तना कहते हैं। वर्तना ही लक्षण है, जिसका-वह वर्तना लक्षण कालानूद्रव्य रूप निश्चय काल है । इस तरह व्यवहार तथा निश्चय काल का स्वरूप समझना चाहिये। यहां कोई ऐसा कहता है कि समय रूप ही निश्चयकाल है। उस समय से भिन्न कोई कालानुद्रव्य रूप निश्चयकाल नहीं है, क्योंकि वह देखने में नहीं पाता। इसका उत्तर यह है कि समय तो काल ही की पर्याय है। प्रश्न-समय काल की पर्याय कैसे है ? उत्तर-पर्याय का लक्षण उत्पन्न व नाश होता है। समय का भी उत्पन्न व नाश होता है, इसलिये पर्याय है । पर्याय द्रव्य के बिना नहीं होती। उस समयरूप पर्याय कान का उपादान कारणरूप द्रव्य भी कालरूप ही होना चाहिये। जैसे ईधन पग्नि मादि सहकारिणी है तथा भात का सहकारी कारण चावल ही होता है, अथवा कुभकार चाक चीवर मादि निमित्त कारण से उत्पन्न जो मिट्टी का बहिरंग घट पर्याय है उसका उपादान कारण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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