________________
मेरु मंदर पुराण प्रश्न-ग्रन्थकार ने प्रथम तीर्थंकर या अन्य तीर्थंकरों को नमस्कार न करके इन्हीं श्री विमलनाथ तीर्थंकर को क्यों नमस्कार किया है ?
उत्तर-हमको ऐसा भाव भासित होता है कि ग्रन्थ-कर्ता को इन भगवान का इष्ट विशेष रूप से था तथा जिनका वे पराण लिख रहे हैं वे दोनों मेरु और मन्द भगवान के गणधर थे। इसलिए इन भगवान को नमस्कार किया है । तथा सामान्य रूप में यदि विचार किया जाय तो ग्रंथकार ने जिन गुणों को नमस्कार किया है वे गुण सभी भगवानों में विराजित हैं अतः उन्होंने इन गुणों को कहते हुए सभी तीर्थंकरों को नमस्कार किया है। अब यह मेरु और मंदर कौन थे इनका आगे चलकर विवेचन होगा।
ग्रंथकार ने इस श्लोक में अपना लघुत्व प्रकट करते हुए कहा है कि इस ग्रंथ की रचना करने से मुझे कोई इसके प्रतिफल की, संसार की तथा अन्य वस्तु की कामना नहीं है; किन्तु जिस प्रकार श्रीविमलनाथ तीर्थङ्कर ने अपने तप के द्वारा ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय व अन्तराय इन चारों कर्मों का नाश कर केवल ज्ञान ज्योति अर्थात् आत्मज्योति को प्राप्त की तथा जगत् की सर्व प्रात्मा को जगा कर सच्चा मार्ग दिखाया है उसी प्रकार मैं "वामन" मुनि उन्हीं के समान उन्हीं महानुभावों की पुनीत कथा की रचना करने से इस वाणी रूपी स्तुति के द्वारा मेरे अन्दर अनादिकाल से मोह अविद्या अज्ञान रूपी अन्धकार में छुपो हुई आत्म-ज्योति प्रकट होकर इस संसार रूपी अटवी से मुक्त हो जावे, इस हेतु से श्री विमलनाथजी तीर्थङ्कर के समवसरण सभा में जो मुख्य प्रसिद्धि को प्राप्त हो चुके हैं, सुखी हैं और तीन लोक के भव्य जीवों के द्वारा पूजा के योग्य हुए ऐसे मेरु और मन्दर के नाम के जो गणधर शास्त्र समुद्र के पारगामी होकर भव्य जीवों को कल्याण का मार्ग बता दिया है ऐसे महान पवित्र पुराण पुरुषों की कथा लिखने के लिये मेरे मन को अत्यन्त परिशुद्ध कर के मन वचन काय के द्वारा इस तमिल भाषा ग्रन्थ की रचना का प्रारम्भ करता हूँ।
विशेष विवेचन-ग्रंथकार ने भव्य प्राणियों के लिए संसार की विचित्रता और संसार शरीर भोग सम्बंधी वस्तुओं का परिचय करने के लिये सबसे पहले पंचेन्द्रिय विषय में मग्न हुए अज्ञानी जीवों को महान पुरुषों का कथन करके इन संसारी विषयों (पंचेन्द्रिय भोगों) से विरक्त करके वास्तविक पात्म तत्त्व के सन्मुख करने का प्रयास किया है। क्योंकि संसार, शरीर एवं भोगों को इन संसारी जीवों ने अनेक बार प्राप्त करके उनको छोडते आए हैं । इसके बारे में श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने समयसार में कहा है कि
एयत्तरिणच्छयगमो समग्रो सम्वत्थ सुदरो लोए ।
बंधकहाएयत्ते तेण विसंवादिणी होई ।। ३ ।।
भावार्थ-बंध होने का कारण यह है कि अन्य पदार्थ से बद्ध होने वाला एक पदार्थ स्वस्वभाव त्याग पूर्वक पर स्वभाव को स्वीकार करने वाला न होने से दो विजायतीय पदार्थों का वस्तुतः एकीभाव अभिन्नत्व होना असंभव होने से वास्तव बंध होता ही नहीं। बंध का अर्थ एकीभवन है। पदार्थ और उसके गुण पर्याय में जिस प्रकार एकीभवन तादारम्य होता है उसी प्रकार दो भिन्न स्वभाव वाले अतएव विजातीय पदार्थों में एकीभवन
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org