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मेरु मंदर पुराण अर्थ-निश्चय से अठारह दोष रहित, वीतराग, सर्वज्ञ और हेयोपादेय का विश्वास उत्पन्न कराने वाले शास्त्र का प्रतिपादक प्राप्त होना चाहिए, क्योंकि इससे विपरीत प्रकार अर्थात् १८ दोष रहित बिना सत्य प्राप्तता नहीं आ सकती।
क्षुत्पिपासा-जरातंक-जन्मान्तक भयस्मयाः ।
न रागद्वेषमोहाश्व यस्याप्तः स प्रकीर्त्यते ॥ ( र० श्रा० )
अर्थ-जिस देव में क्षुधा, तृषा, जरा, रोग जन्म मरण भय मद राग द्वेष मोह और चिन्ता, अरति निद्रा, आश्चर्य, विषाद, स्वेद और खेद यह अठारह दोष नहीं होते हैं वह प्राप्त कहा जाता है।
परमेष्ठी परं ज्योतिविरागो विमलः कृति ।
सर्वज्ञोऽनादिमध्यान्तः सार्वः शास्तोपलाल्यते ॥ ( र० श्रा० ) अर्थ-इन्द्रादि द्वारा बन्दनीय, परम पद में स्थित, ज्ञान का धारक भाव कर्म रहित, मूल और उत्तर कर्म प्रकृति रूप मल रहित. सम्पूर्ण हेय तथा उपादेय तत्त्वका ज्ञानी, समस्त पदार्थो का यथार्थ ज्ञाता, उक्त प्राप्त के प्रवाह की अपेक्षा आदि मध्य और अन्त रहित, सबके हित के लिये इस लोक और पर लोक के उपकार मार्ग का व्याख्यान करने वाला, पूर्वापर विरोधादि दोष रहित, समस्त पदार्थों का यथार्थ स्वरूप का वक्ता, हितोपदेशी कहा जाता है । इस प्रकार इन प्राप्त या वीतराग भगवान के द्वारा कहा हुआ धर्मका मार्ग सदैव जीवों का कल्याण करने वाला है । इसलिये इनके द्वारा कहा हुअा धर्म संसारी प्राणी को संसार रूपी समुद्र से निकाल कर सुखमय स्थान में रखने वाला है। इसलिये इन श्री विमलनाथ तीर्थंकर ने आत्मा को घात करने वाले ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय मोहनीय और अंतराय ऐसे चार घातिया कर्मों का नाश कर जीवन मुक्त अवस्था अर्थात् केवलज्ञान को प्राप्त किया है। इस कारण इनको प्राप्त, सर्वज्ञ, वीतराग तथा हितोपदेशी कहते हैं। और तीन विशेषण अहत श्री विमलनाथ भगवान में पाये जाने से ये सच्चे देव हैं। इसलिये प्रथम ग्रंथ के प्रारम्भ में इनको नमस्कार किया गया है। इस सम्बन्ध में पात्रकेशरी स्तोत्र में भी अहंत भगवान की महिमा बताई है:
परिक्षपित कर्मणस्तव न जातु रागादयो। न चेन्द्रिय विवृत्तयो न च मनस्कृता व्यावृतिः॥ तथापि सकलं जगद् युगपदअसावेत्सि च।
प्रपश्यसि च केवलाभ्युदित दिव्य सच्चक्षुषा ।
भावार्थ-हे जिनेन्द्र आपने मोहनीय आदि कर्मों का नाश कर दिया है इसलिये आपके कभी भी रागादिक दोष नहीं होते हैं। केवलज्ञान का प्रकाश हो जाने से
आपके मतिज्ञान व श्रुतज्ञान नहीं रहा है। इसी से न इन्द्रियों का व्यापार है न मन की संकल्प विकल्प रूप चंचल क्रिया है; तथापि आप केवल ज्ञान मई दिव्य चक्षु से सर्व विश्व को एक साथ जानते व देखते हो । आपकी महिमा अपार है।
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