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________________ मेरु मंदिर पुराण देशयामि समीचीनं धर्म कर्मनिवर्हरणम् । संसारदुःखतः सत्त्वान्यो धरत्युत्तमे सुखे ॥ (र० श्रा० ) अर्थ संसार के दुःखों से बचाने वाले आत्मा के परिणाम अथवा पाचरण को धर्म कहते हैं। इस प्रकार श्री विमलनाथ तीर्थकर भगवान ने अपनी दिव्य ध्वनि के द्वारा उपदेश दिया है। प्रश्न-जैन धर्म में ही ऐसी क्या महत्ता व विशेषता है कि वही धर्म सच्चा है और माननीय है ? ऐसा प्रतीत होता है कि यह अपने जैन धर्म की महानता तथा अपने मत की पुष्टि करते हैं और अन्य धर्म की लघुता बतलाने के लिए ही इस प्रकार तुमने प्रयत्न किया है। उत्तर-हमारे जैन धर्म में किसी भी प्रकार का आक्षेप व पक्षपात नहीं है। प्राचार्यों ने जो सच्चा धर्म बतलाया है उसका मैं प्रतिपादन करूंगा। क्योंकि जिस धर्म में अहिंसा का सर्वोपरिस्थान हो, समस्त जीवों का जिस धर्म के द्वारा कल्याण होता हो, और जो धर्म दया से युक्त हो, जिस धर्म के धारण करने से प्राणी मात्र का कल्याण होता हो, वही धर्म दयामई धर्म है। "अहिंसा ही परम धर्म है।" जैनाचार्य पक्षपात रहित धर्मोपदेश करते हैं । "गुण" निम्न प्रकार होना चाहिए कहा है कि: यो विश्वं वेद-वेद्यं जनन जलनिधे गिनः पारदृश्वा । पौर्वाषर्याविरुद्ध वचनमनुपमं निष्कलंकं यदीयम् ।। तं वंदे साधुवंद्यं निखिलगुणनिधिं ध्वस्तदोषद्विषतं । बुद्ध वा वर्धमानं शतदलनिलयं केशवं वा शिवं वा ।। अर्थ-जो जानने योग्य, जगत को जानता है और जो नाना प्रकार के शोक भय, पीडा, चिन्ता, अरति, खेद आदि रूप तरंगों वाले संसार रूप समुद्र के पार को देख चुका है और जिसका पूर्वापर विरोध रहित है, निर्दोष उपमा रहित वचन है। रागादि दोष रूपी शत्रु के नाशक समस्त गुणों के प्रकाशक, बडे बडे मुनीश्वरों द्वारा बन्दनीय हैं उस महान परमात्मा को मैं वंदना, नमस्कार तथा स्तुति करता हूँ। चाहे वह बुद्ध हो, वर्द्धमान या ब्रह्मा हो अथवा विष्णु, महादेव कोई भी हो । तात्पर्य यह है कि जिसमें सर्वज्ञता हो, सर्वदर्शिता हो. हितोपदेशिता हो, वीतरागता हो, वही हमारा इष्ट है, और उसे ही हम नमस्कार करते हैं। वह नाम से बुद्ध वर्द्ध मान ब्रह्मा, विष्णु और महेश कोई भी हो, हमें नाम से कोई विवाद नहीं है । जो रागी हो द्वषी हो मोही हो भय से युक्त हो, आशावान हो वह देव नहीं कहलाता है:-कहा भी है आप्तेनोच्छिन्नदोषेण सर्वज्ञनागमेशिना। भवितव्यं नियोगेन, नान्यथा ह्याप्तता भवेत् ।। (र० श्रा० ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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