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मेरु मंदिर पुरारण
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ग्रंथकार ने ग्रंथ के निर्मारण की आदि में श्री १००८ विमलनाथ तीर्थंकर को नमस्कार किया है । वह विमलनाथ तीर्थंकर कैसे हैं सो कहते हैं-विभाव परिणति से उत्पन्न हुए राग-द्वेष मलिनता से रहित और स्वभाव गुरण से युक्त, अनन्त गुरणों से परिपूर्ण हैं, लोकालोक को जानने वाले हैं और देखने वाले हैं। तीनों कालकी चराचर वस्तु को भी एक ही समय में जानने वाले तथा देखने वाले हैं। ऐसे श्री विमलनाथ तीर्थंकर के चरण कमलों में मस्तक झुकाकर नमस्कार करता है कि मेरे द्वारा निर्माण किये जाने वाले ग्रंथ को समाप्ति निर्विघ्नता पूर्वक हो ।
भावार्थ - श्री वामनमुनि ने इस श्लोक में प्रथम मंगलाचरण द्वारा भक्ति पूर्वक श्री १००८ विमलनाथ तीर्थंकर को नमस्कार किया है कि ग्रंथ की समाप्ति निर्विघ्नता पूर्वक हो । श्री विमलनाथ कैसे हैं ? वे विमलनाथ तीर्थंकर, अनादि काल से जो आत्मा के साथ शत्रु के समान लगते पा रहे हैं, मात्मगुणों को तथा उनके बलको दबाकर नरकादि चार गतियों में भ्रमण कराने में अत्यंत बलवान हैं और हमेशा प्रात्माको दुख उत्पन्न कराने वाले हैं, ऐसे ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अंतराय इन चार घातिया कर्मों को नाश करके केवलज्ञान कर युक्त है, जो अंतरंग और बहिरंग लक्ष्मी से सुशोभित हैं और जो इद्रों के द्वारा पूजनीय हैं; भूत भविष्यत प्रोर वर्तमान इन तीनों काल की चराचर वस्तुओं के एक ही समय में एक साथ जानने वाले तथा समझने वाले हैं, तथा केवलज्ञान रूपी अंतरंग लक्ष्मी और देवों द्वारा निर्मित समवसरण रूप बहिरंग लक्ष्मी इन दोनों लक्ष्मी से सहित हैं अर्थात् अठारह दोषों से रहित हैं ।
समस्त बारह सभा में स्थित मनुष्य देव तियंच (पशु पक्षी ) श्रादि सर्व जीवों को अपने दिव्य-ध्वनि के द्वारा सातसौ अठारह भाषाओं में सुनाते हैं । वे सर्व जीव अपनी भाषाओं में सुनकर अपने जीवन को सुधार लेते हैं । मौर कैसे हैं विमलनाथ भगवान ! जन्म मरण से रहित हैं। पुनः संसार में भाने वाले नहीं हैं, अतः सच्चे देव होने से इनके उपदेश से जीवों का उद्धार होता है। जो पुनः पुनः संसार में श्राकर जन्म मरण के श्राधीन होते हैं वे ऐसे सच्चे देव कैसे हो सकते हैं ?
ऐसे विमलनाथ भगवान को मैं साष्टांग नत मस्तक होकर नमस्कार करता हूँ ।
प्रश्न - वामन मुनि ने कौन से धर्म का उपदेश किया ? संसार में ३६३ मत हैं श्रथवा ३६३ धर्म वाले हैं उन्होंने भी धर्म का उपदेश अपने २ शिष्यों को व अनुयायियों को दिया और देते आए हैं और वे भी इसी धर्म के द्वारा संसारी जीवों का उद्धार हो ऐसी कामना करते हैं और इसी प्रकार जैन धर्म और जैनाचार्य भी भव्य जीवों के हित के लिए धर्मोपदेश देते हैं; क्योंकि भिन्न भिन्न मतों वाले अपने माने हुए मत के अनुसार उपदेश देते श्रा रहे हैं । वे भी कहते हैं कि हमारे देवों ने भी सम्पूर्ण प्राणियों को उपदेश देने का मार्ग बलाया है । अब कौनसे धर्म से हमारा श्रात्म-कल्याण हो और कौनसा धर्म ग्रहण करना है ? इसका स्पष्टीकरण किया जाय ताकि वही धर्म में ग्रहरण करूं ।
उत्तर - सुप्रसिद्ध जैनाचार्य श्री समन्त भद्र ने धर्म का स्वरूप इस प्रकार बतालाया है
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