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________________ 1 मेरु मंदर पुराण तादात्म्य नहीं होता । अशुद्ध प्रज्ञानी जीव और पुद्गल कर्म इनमें जो बंध होता है वह वास्तव बंध न होने से स्वस्वरूप स्थित वे दोनों पदार्थ किसी समय अलग हो जाते हैं। यदि वह बंध वास्तव होता उनका मोक्ष पृथग्भाव होना ही असंभव हो जाता क्योंकि बंध से उन दोनों में तादात्म्य हो जाता है । जिनमें वास्तव बंध- एकीभाव तादात्म्य होता है उनमें एक का प्रभाव हो जाने पर दूसरे का भी प्रभाव हो जाता है, जैसे गुरणी का अभाव होने पर गुणों का अभाव और गुरणों का प्रभाव होने पर गुरणी का प्रभाव । एकीभाव स्तोत्र "एकी भावगतं इव मया यः स्वयं कर्मबन्धः " इस प्रथम चरण में प्राचार्य श्री वादिराज सूरि ने "एकी भाव गतं इव" इन पदों के द्वारा इसी प्राशय को पुष्ट किया है। क्योंकि “इव" शब्द के द्वारा जीव के साथ वास्तव कर्म बंध के एकीभाव का प्रभेद का तादात्म्य का प्रतिषेध किया है। इस प्रकार समयसार में कुन्दकुन्दाचार्य ने बंध कथा को गौरण करके निश्चय कथन को मुख्य बताया है क्योंकि व्यवहार नय का परिचय जीव को अनेक बार हो चुका है किन्तु एकत्व आत्म स्वरूप व शुद्ध चैतन्य स्वरूप का निश्चय अनुभव में नहीं आया । सो यह बात ठीक ही है । परन्तु निश्चय नय श्रात्म स्वरूप की अनुभूति के लिये व्यवहार नय गृहस्थाश्रम में मुख्य माना गया है । क्योंकि जब तक वस्तु स्वरूप का ज्ञान हो, तब तक उसके साधन भूत व्यवहार नय का श्राश्रय अत्यन्त आवश्यक है। जिस प्रकार सोने का पत्थर मिल जाय और यह सोने का पत्थर ही है ऐसी प्रतीति होती है तब मनुष्य उस पत्थर जैसे सोने को अलग करने हेतु जुटाने की सामग्री करने का प्रयत्न करता है । यदि सामग्री ठीक मिल जाय कृति भी मिल जाय और फिर सोने को भी मुस (प्याला) में गला दे तो उस मुस में रहने वाला कचरा व सोना भिन्न हो जाता है । तब उसमें जो साधन होता है वह अपने आप छूट जाता है । तत्पश्चात् जो पहले सामग्री साधन जुटाई थी साधक उस तरफ कभी भी दृष्टि नहीं डालता । इस प्रकार अनादिकाल से सोना व पत्थर जैसे एक रूप में उसके सम्पूर्ण पत्थर के श्रवयव में पूर्ण रूप से छिपे हुए हैं उसी प्रकार आत्मा अनादि काल से इस सर्वाङ्ग शरीर में एक क्षेत्रावगाह रूप में धारण किये हुए है। अब इन दोनों को भिन्न भिन्न रूप में करने के लिये भेद ज्ञान की आवश्यकता है । इसलिये आचार्यों ने सर्व प्रथम भोगों का परिचय होने से उसी को अपने से शुभ की ओर जाने को कहा है। संसारी जीवों को अनादिकाल से पंचेन्द्रिय विषय सुख का मार्ग मान रखा है. अतः उन्हीं में अशुभ आचार्य ने इस अज्ञानी जीव को इसका परिचय या भोगों की लालसा हटाने के लिये सब से पहले संसार और भोग विषय का तथा उससे भिन्न परमार्थ का पृथक् २ प्रतिपादन किया है। दुःख से छुड़ा कर पुण्य में तथा शुभ राग में परिणमन कर पुण्य का बंघ होने वाली कथाओं का विवेचन किया है। जैसे छोटे बालक की माता उसकी खोटी प्रदत छुड़ाने के लिए किसी मीठी वस्तु का लालच देकर बुरी आदत छुड़ाने का प्रयत्न करती है । तब वह बच्चा एक बार मीठी चीज को चाटने पर बुरी चीज को छोड़ देता है तब उस बुरी वस्तु पर उसकी इच्छा नहीं होती है। इसी तरह प्राचार्यों ने संसार की विषय वासनाओं को कम करने के लिए सर्व प्रथम प्रथमानुयोग की कथाओं का विवेचन किया है । श्री समन्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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