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________________ मेद मंदर पुराण [ ३३१ बरुमवर् मुन्बु ताम्र से मल्विनं मायंद पोवि । नेरि रु तिरुवि नोनार कुळं यरा ईयल् वर् कंडाय् ॥ ७९४ ।। अर्थ - हे राजकुमार सुनो ! मोती का हार माला, अनेक प्रकार के रत्न आभरण आदि को धारण कर हाथी पर बैठकर सफेद छत्र को धारण कर नगर में घूमने वाले राजा लोगों के पूर्व जन्म में उपार्जन किये हुये पुण्य ही का यह सब फल है । यदि प्रशुभ कर्म का उदय श्री जावे तो सभी संपदा का क्षणभर में नाश हो जाता है । और राजा भी पराधीन हो जाते हैं । चक्रवर्ती के पास कितनी संपदा होती है । इस बारे में प्राचार्यों ने त्रिलोकसार में गाथा ६८२ में कहा है: "चुलसी दिलक्खभाद्दिभरहा हया विगुणणवयकोडी प्रो । वरण हि चोट्स रयरणं चक्कित्थीश्रो सहस्सछाउदी || चौरासी कल्याण रूपी हाथी हैं, चौरासी लाख रथ हैं, अठारह करोड घोडे हैं। छह ऋतु योग्य 'वस्तु का देने वाला कालनिधि है । भाजन पात्र का दायक महाकालनिधि है । न का दायक पांडुनिधि है । प्रायुध का दायक माणवकनिषि है । वादित्र का दायक शंख निधि है । वस्त्र का दायक पद्मनिधि है । श्राभूषरण का दायक पिगल निधि है । नाना प्रकार की रत्ननिधियां हैं । ये नौनिधि हैं। चक्र प्रसि छत्र, दंड, मरिण, चमर, काकिरणी, यह सात चेतन और गृहपति, सेनापति, गज, घोडा, शिल्पी, स्त्री, पुरोहित ये सात सचेतन, ऐसे चौदह रत्न हैं । छियानवें हजार स्त्रियां हैं। ऐसी चक्रवर्ती की संपदा है। इतना होने पर भी चक्रवर्ती की तृप्ति नहीं हुई । यह सभी पूर्व जन्म के पुण्य का उदय है परन्तु इनको संसार का कारण तथा क्षणिक समझकर चक्रवर्ती भी इसको त्याग कर जिन दीक्षा ले लेता है । इस प्रकार हे पुत्र ! तुम भी प्रजा का न्यायपूर्वक पालन करते हुए धर्मध्यान करना और भविष्य में तुम भी अपने पुत्र को सदुपदेश देकर राज्याभिषेक करके जिन दीक्षा धारण करना ।।७६४।। Jain Education International पचनल्ल मळि इन् कट् परुमरिण पवळत्तिन् काळ् । मंजिन मेंलन सोलार्गळ वरुडमा पोटू इंड्रार् ॥ मुन्वताम् शेद तीमै मुळेतुळि कनत्तिन् बेराय । तुंजि नार् पोल मालं तुगनिल तुरंवर् कंडाय् ॥७६५॥ अर्थ – हे कुमार ! अत्यंत मृदु शय्या पर सोने वाले श्रीमंत भी पूर्व जन्म के पुण्य संचय के बाद जब पाप कर्म का उदय आ जाता है तो उनको भी कंटकीय भूमि पर सोना पडता है और महान नीच से नोच कर्म करना पडता है । यह प्रत्यक्ष में देखने में आता है । ॥७६५॥ कडल् विळंयमदं मन्न कवळं तुर् कळत्तिर् कामत् । तुडि इडे मगळि रेंद तुयर मुटू रिदि नुंडा || रुडेय कल कमी नदि यूर् तोरुं पुक्कु पेटू । वsगिने यमरं दुवांगळ् नल्बिने देविंद कालं ॥७६६॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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