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मेर मंदर पुराण
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मदले माडमुं मोन्निय शेल्वमुं। कुदले मेन्मोळि यारयुं नीत्तवन् । विदल कोंडु विछंद नन् वदन मेल ।
मुदलवागिय वेरं मुळेत्तदे ॥३२६॥ अर्थ-प्रत्यन्त सुन्दर महल में रहने वाला, रत्न संपत्ति, अत्यन्त सुन्दर स्त्रियों एवं अपने खजाने को यह शिवभूति मंत्री त्याग करके जाते समय जिस प्रकार रत्नों से भरा हुआ जहाज समुद्र में चलते समय बीच में किसी टक्कर आदि के लगने से डूब जाका है; उसी प्रकार सभी कुछ छोडकर जाते समय वह मंत्री थरथर कांपते हुए नीचे मूर्छा खाकर घबराकर भूमि पर गिर जाता है । उस समय उस मंत्री को सिंहसेन राजा के प्रति महान क्रोध उत्पन्न हुआ और उस क्रोध के निमित्त से प्रात्मा में द्रव्य कर्म, भाव कर्म सहित निदान बंध कर लिया ।।३२६।।
यें, तानिये यदुवदेड्रळा। निड वर तति नीरिय वायुर्छ । कुंड वंदु विलगिनु ळायुग । मंड, कट्टिय वायुयु मदे ॥३३०॥
अर्थ-इस प्रकार निदान बन्ध करने के बाद वह मंत्री पुनः अपने मन में विचार करता है कि यह पुत्र, सुन्दर स्त्रियां, संपत्ति प्रादि २ से तथा अनेक प्रकार के रत्नों से भरा हुमा, सुन्दर२ हाथी घोडे आदि अब मुझे कहां से मिलेंगे? अब सब को छोडकर कैसे जाऊ; इस प्रकार मन में अत्यन्त दुखी होकर शोक करने लगा और इस प्रकार वार्तध्यान से तिर्यच गति का उसने बंध कर लिया और प्रायु पूर्णकर तिर्यच हुवा ।।३३०॥
मिस्तु निरि बिळक्कु वींदुळि । भक्कमतिर लग्यु मारु पोल ।। मक्कळायुगं मायं व होळदिने । तिक्क वायुगं सेंड वित्तदे ॥३३॥
अर्थ-जिस प्रकार प्रकाश देने वाला दीपक नष्ट होते ही अंधकार फैल जाता है उसी प्रकार शिवभूति मंत्री ने मरकर अंधकार मय तियंच गति में जाकर पर्याय धारण की। भावार्थ-श्रेष्ठ प्रार्य भूमि, उत्तम कुल, उत्तम वंश, जैन धर्म यह मिलना ही इस जीव को अत्यंत दुर्लभ होता है। ऐसी दुर्लभ मनुष्य पर्याय मिलने पर भी यह जीव पंचेन्द्रिय विषयों में लालायित होकर अनेक प्रकार के कपट मायाचार करके धन संग्रह करता है । इतना करने पर भी इस जीव की तृप्ति नहीं होती। जैसे पशु पर्याय है वैसे ही मनुष्य पर्याय में खा पीकर पशु पर्याय के समान महानिद्यगति में जाकर जन्म लेता है। कितने प्राश्चर्य की बात है ? हिताहित का ज्ञान मनुष्य पर्याय में ही होता है। पशुओं में हेय उपादेय का बोध नहीं होता
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