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मेरु मंदर पुराण
है, किन्तु यह अज्ञानी मानव प्राणी जिस प्रकार किसी भील के हाथ में अमूल्य मारणक या हीरा दे दें तो वह उसे काच समझ कर कौव्वे उड़ाने के उपयोग में लेता है, उसी प्रकार मानव रत्न प्राप्त करके उसका उपयोग न करने के कारण पंचेन्द्रिय चिडिया उडाने में वह मोती अगाध समुद्र में जाकर पड जाता है और फिर उस रत्न का मिलना अत्यंत दुर्लभ होता है। इसी प्रकार वह मंत्री मनुष्य पर्याय की सारी सामग्री प्राप्त करने पर भी पंचेन्द्रिय विषय भोगों में मग्न होकर अपने पूर्वजन्म में पुण्य के द्वारा सञ्चय किए हुए मानव रत्न को लोभ कषाय की पूर्ति के लिये उसका उपयोग कर अन्त में महान निन्द्य गति को प्राप्त हुआ ।। ३२१।।
श्राम गति बोरि पुव्वि । नीच गोतिरम निदितिड ॥
पोयमन्नवन् पोन्नरयर । वायिनन् पयरगंद नागुमें ।। ३३२ ॥
अर्थ-तिर्यंच आयु, तिर्यंच गति, पंचेन्द्रिय जाति, तिर्यच गत्यानुनूपूर्वी नाम, नीच गौत्र आदि ये उस शिवभूति मंत्री के उदय में आने से उस शिवभूति के जीव ने सिंहसेन राजा के कोषागार में गंध नाम की सर्प योनि में जन्म लिया ॥ ३३२ ॥
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श्ररसन्मेर करुविर् पोरुळासे इन् । मरियिय मायत्तिन् मदरि मद्रिद ॥ तिर्यक्कायि नन् ट्रियविच्चैगये । मरुवु वारुळ रोमदि मांदरे ॥ ३३३ ॥
अर्थ- -उस राजा सिंहसेन पर किया हुआ बैर ( निदान बंघ) से तथा संपत्ति प्रादि वस्तुओं पर मोहित होने से उस मंत्री ने अपने मन में निदान बंध कर लिया था। इस निदान बंध के कारण तिर्यंच गति में जन्म लिया । परन्तु इस प्रकार स्व-पर पदार्थ के ज्ञानी लोगों के इतनी संपत्ति होने पर रागद्वेष मोह न करने से जो कर्म का बंध होता है, उससे ऐसी निंद्य गति नहीं होती, ज्ञानी लोग ऐसा बंध नहीं बांधते । अज्ञानी लोग ही संसार परिभ्रमरण करके निंद्य गति का बंध बांधते हैं ।। ३३३||
अळविला निधियै विट्टु पिरन् पोरुळदनं मेवल् । कळवुदा निरंडु कुरा मियलबु कारणं कडम्मा ॥ लळविला पोरकुंडा युम् पिरन् पोरुट् किवरळादि । कळवदान् कय दागं कंपोरुळट्र वर्षे ।। ३३४॥
अर्थ-तीन लोक की संपत्ति अपने पास रहने पर भी मुर्ख प्रज्ञानी लोगों की तृष्णा की पूर्ति नहीं होती है । वे मूर्ख लोग इतना होने पर भी दूसरे की संपत्ति का अपहरण करने की भावना रखते हैं । सामान्य रीति से विचार किया जाय तो यह भी एक चोरी है । चोरी
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