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________________ [ १५ गर्भ में आकर हिरण्यवती नाम की पुत्री हुई । यौवनावस्था को प्राप्त होने पर पोदनपुर के राजा पूर्णचंद्र के साथ उसका विवाह हो गया । और मदुरई नाम की ब्राह्मण की स्त्री मर कर हिरण्यवती के गर्भ में प्राकर पुत्री हुई। वह पुत्री रामदत्ता तुम ही हो । और भद्रमित्र नाम के व्यापारी का जीव मरकर मैं सिंहचंद्र मुनि मैं ही हूं और पूर्वजन्म में जो वारुणी तुम्हारी पुत्री थी वह मर कर तुम्हारे गर्भ से पूर्णचंद्र हो गया । इसलिए उस पर आपका गाढ़ स्नेह है । आगे चलकर वह पूर्णचंद सम्यकदृष्टि होगा। तुम्हारे पिता पूरणचंद मुनि दीक्षा लेकर मुझको धर्मोपदेश करके मुझे दीक्षा देकर दीक्षागुरु हो गये । तुम्हारी हिरण्यवती माता ने शांतिमति प्रार्थिका के पास जाकर आर्यिका दीक्षा ली । तुम्हारे पति सिंहसेन राजा सर्पदंश से मरकर सल्लकी नाम के वन में अशनीकोड नाम का हाथी हुआ । मेह मंदर पुराण एक दिन जब हम पर्वत पर तप कर रहे थे उस समय वह अशनीकोड हाथी क्रोधित होकर मुझे मारने आया। तब मै चारण ऋद्धि के प्रभाव से आकाश में चला गया और खड़ा रह कर पूर्वभव का स्मरण उस हाथी को करा दिया। हे सिंहसेन राजा ! तुम पूर्वभव के पाप कर्म के निमित्त से हाथी होकर उत्पन्न हुए। अब उससे भी अधिक पाप कार्य कर रहे हो । जब मैं राजा था, उस वक्त भी मैंने तुम्हें देखा था और आज भी तुम्हें मैं हाथी की पर्याय में देख रहा हूं । इसलिए ग्राप इस पाप से भयभीत होकर धर्म पर रुचि रखकर सम्यक्त्व धारण करो। मैं सिंहसेन राजा का पूर्वभव का बड़ा पुत्र हूं । इस प्रकार सिंहचंद्र मुनि का उपदेश सुनकर उस हाथी को जाति स्मरण हो गया और खड़ा होकर एकदम से विनयपूर्वक नमस्कार किया । और उस हाथी को धर्म श्रवण कराया और हाथी ने पांचों पापों को त्याग कर पंच अणुव्रत धारण किये । व्रत लेकर वह हाथी मासोपवास पाक्षिकोपवास करने लगा । और सूखा तृण व पत्त आदि खाकर अपना जीवन पूरा करने लगा। एक बार पाक्षिकोपवास करने की दशा में केसरी नाम की नदी में पानी पीने गया था। वहां कीचड़ में वह फंस गया । इस कारण उस कीचड़ में से निकलने की शक्ति नहीं रही । सत्यघोष मंत्री का जीव चमरी मृग होकर मरकर कुक्कुट नाम का सर्प हुआ था, वह वहां मौजूद था । उसको पूर्वभव के बैर का स्मरण होकर उसने हाथी को डस लिया । उस विष से वह महान दुखी हुआ और धर्मध्यान में लीन होकर शांतभाव से पंच नमस्कार मंत्र का स्मरण करता हुआ प्राण त्याग कर सहस्रार कल्प में सूर्यप्रभ विमान में श्रीधर देव उत्पन्न हुआ । तब वहां के अन्य देवों ने पास में खड़े होकर जयजयकार करते हुच वाद्यध्वनि की और बहुत सन्मान किया। उस श्रीधर ने अपने मन में विकल्प किया कि मै कौन हूं कहां से आया हूँ, यह कौनसा क्षेत्र है ? उन सबका समाधान अवधिज्ञान द्वारा उसने जान लिया। मैंने पूर्वजन्म में जो व्रत ग्रहरण किया था उस का ही यह फल है कि मैं यहां देव हुआ है और यह विभूति मिली है । और यह सब परिवार के सेवक देव खड़े हैं । तदनंतर वहां के रहने वाले सामान्य देवों ने उसको नमस्कार करके कहा कि त्रिमंजिल नाम की बावड़ी में स्नान करके प्रथम जितेंद्र भगवान के दर्शन करो और यहां Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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