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मेरु मंदर पुराण
ओर पाये तब वह सिंहचद्र उन मुनिराज को भक्ति पूर्व के पड़गाह कर अपने घर पर ले गया और नवधाभक्ति सहित उनको प्राहार दिया।
पाहार के पश्चात् मुनिराज को उच्चासन पर विराजमान किया। पूजा अर्चा के बाद विनयपूर्वक प्रार्थना करने लगा कि हे भगवन् ! मुझे मोक्ष प्राप्त करने का उपाय बतलाइये। मुनि कहने लगे जा अासन्न भव्य हैं, वे मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं। अभव्य जीव कभी मोक्ष नहीं जा सकते। तप दो प्रकार के हैं। एक अन्तरंग दूसरा बहिरंग । दोनों ही छह २ प्रकार के होते हैं । अंतरंग और बहिरंग तप के साथ २ अंतरंग और बहिरंग दोनों प्रकार के परिग्रह को त्याग कर सम्यकदर्शन सहित मुनिव्रत को धारण किया जाता है । मुनिराज का उपदेश सुनकर वह सिंहचन्द्र वैराग्ययुत होकर अपने छोटे भाई पूर्णचंद्र को राज्य भार सम्हलाकर दीक्षित हो गये। और दीक्षा लेकर वह सिंहचंद्र निरतिचार तपश्चरण करते हुए विपुलमति मनःपर्ययज्ञान को प्राप्त हुए और चारण ऋद्धि के धारक हुए।
इधर वह छोटा भाई पूर्णचंद्र संसार के विषय भोगों में लिप्त हो गया और धर्म से अरुचि रखने लगा। इस प्रकार विषय भोगों में लीन हुआ देखकर वह रामदत्ता आर्यिका उनके पास आई और पूर्णचंद्र को धर्मोपदेश दिया। इस धर्मोपदेश को सुनकर ऐसा लगा जैसे बंदर को अदरक का स्वाद बुरा लगता है और इधर उधर मुह बना कर कूदने लगता है। इसी तरह वह पूर्णचंद्र भी अरुचि से मुह बनाकर इधर उधर चला गया। तब रामदत्ता प्रायिका अपने बड़े पुत्र सिंहचंद्र मुनिराज के पास गई और विनय के साथ नमस्कार किया और प्रार्थना की। हे मूनि ! पूर्णचंद्र धर्म मार्ग में लगेगा या नहीं । भव्य है या अभव्य । इसका निरूपण कोजिये। मुनिराज ने कहा कि यह भव्य है धर्म मार्ग पर लग जायगा। इस संबंध में मैं एक कथा कहता हूँ सो सुनो और यह कथा पूर्णचंद्र को भी जाकर सुनायो।
चतुर्थ अध्याय समाप्त
पांचवां अध्याय मुनि सिंहसेन प्रायिका रामवत्ता व मुनि सिंहचंद्र का स्वर्ग गमन तथा पूर्णचंद्र को
धर्म रुचि उत्पन्न करने के लिए संबोधन तदनंतर वह सिंहचंद्र मुनिराज कहने लगे-कौशल देश से संबद्ध वृद्धनाम का ग्राम है। उसमें मृगायण नाम का एक ब्राह्मण था। उसकी स्त्री का नाम मदुरई था। उन दोनों के वारुरणी नाम की पुत्री थी।
_कुछ समय पश्चात् वह ब्राह्मण मृत्यु को प्राप्त हुआ। अयोध्या नगर का अधिपति अतिबल था। उसकी पटरनी सुमति थी। उस ब्राह्मण का जीव पटरानी के
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