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________________ १६] मेद मंदर पुराण देवियां हैं उनके साथ सुखों का भोग करो। जैसे सामान्य देवों ने कहा उसी प्रकार उस श्रीधर देव ने किया । राजा का दूसरा धर्मिला नाम का मंत्री मरकर वन में बानर हुआ। और उस कुक्कुट सर्प को बैरभाव से मार दिया। समय पाकर उस पाप के कारण बानर का जीव मरकर तीसरे नरक में उत्पन्न हुआ। और कुक्कुट से काटा हुआ वह मजराज मरकर सहस्रार कल्प में देव हुआ। और कुक्कुट सर्प मरकर नरक में गया । उस गजराज के मस्तक में जो गजमुक्ता थे तथा उसकी हड्डी आदि पड़ी थी उन सबको एक भील इकट्ठा करके ले गया । और धनमित्र सेठ को बेच दिया । धनमित्र सेठ ने उनको राजा पूर्णचंद्र को अर्पण कर दिये। राजा ने उन हड्डियों का एक पलंग बनवा लिया और पलंग के पायों में गजमोती भरवा दिये और शेष मोतियों की माला बनाकर अपने गले में धाररण कर ली। इस प्रकार वह पंचेंद्रिय विषय भोगों में मग्न था । सिंहचंद्र मुनिराज ने इस प्रकार सिंहसेन मुनिराज के पूर्वभव की कथा सुनाई । और कहा कि तुम जाकर अपने छोटे पुत्र पूर्णचंद्र को यह कथा सुनायो । उसका मन धर्म ध्यान में रुचि वाला हो जायेगा । तदनंतर रामदत्ता देवी सीधी पूर्णचंद के कल्याण हेतु गई और सिहचंद्र मुनिराज द्वारा कही हुई सारी कथा उनको सुनाई। कथा सुनकर उनको दुख व पश्चाताप हुआ और मृतक गजराज की हड्डियों व मोतियों का बनाया हुआा पलंग और माला आदि सबको फेंक दिये । श्राज तक किये हुए पापों का पश्चाताप करके पंचारणुव्रत धारण करके संसार से विरक्त होकर श्रावक के षट्कर्मों में तत्पर हो गया। तब उसने निदान कर लिया कि यही पुत्र प्रगले भव में मेरे गर्भ में श्राकर उत्पन्न हो जावे । श्रौर रामदत्ता देवी शुभ परिणामों से मरकर महाशुक्र कल्प में भास्कर श्रम नाम का देव हुआ । और वहां स्वर्गीय सुखों का अनुभव किया। और वह पूर्णचंद्र अपनी आयु पूर्ण करके इसी महाशुक्र कल्प में वैडूर्यप्रभ नाम का देव हुआ । तदनंतर सिहचंद्र मुनि घोर तपश्चरण करते हुए अन्त में सल्लेखना विधि से शरीर छोड़कर उपरिम २ नवें ग्रैवेथिक में ग्रहमिंद्र उत्पन्न हुप्रा । वहां इसकी आयु ३१ सागर की हुई । उसको वहां शारीरिक मानसिक भोग नहीं है । सब देव प्रवीचार रहित हैं। मुक्त हुए जीव के समान सुख शांति से रहते हैं और तत्व चर्चा किया करते हैं । सिंहसेन, सिंहचंद्र, रामदत्ता देवी व पूर्णचंद्र आयु पूर्ण करके अपने २ शुभ परिरणामों से देवपर्याय धारण को । उस सत्यघोष का जीव घोर दुख पाता हुआ नरकों में गया । श्रार्तराद्रध्यान के परिणामों से यह जीव नरक गति, तियंचगति को प्राप्त होता है और शुभ परिणामों से मनुष्यगति व देवगति को प्राप्त होता है । इसीलिए सभी लोगों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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