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________________ मेरु मंदर पुराण [ २१७ पेरियदोर पावत्तलिप्पिरविर्य पेरिदु मंजिर् । तिरुवर मरुवयान शीय चंदिर डिटेन ॥४६७॥ अर्थ-पुनः सिंहचन्द्र मुनि कहते है कि हे गजराज ! तुम पूर्वभव में राजसभा में अत्यन्त गौरव पूर्वक राज्यगद्दी पर राज्य करते हुये सिंहसेन नाम के राजा थे । सूर्य का प्रकाश चारों दिशामों में चमक रहा हो ऐसा मैंने मेरी आंखों से देखा था। अब इस समय मैं देख रहा हूं कि हाथी की पशु पर्याय में जन्म लिया है । और भीलों के द्वारा तुम कष्ट सहन कर रहे हो। इस लिये भविष्य में यदि अच्छी गति प्राप्त करने की इच्छा रखते हो तो तुम जैन धर्म को स्वीकार करो। मुनिराज ने उस गजराज को कहा कि पूर्वजन्म में जो सिंहसेन तुम राजा थे उनका तुम्हारा पुत्र मैं सिंहचन्द्र हूँ ॥४६७॥ येंडलु मेळंद पोद तिरंद वेप्पिरवि तन्न । एंडव नरिंदु मूच्चित्तर वर पोल वीळं दान ॥ निड़ दोर पडिइर् ट्रेरि निरै तवन् पोल निड़ान । सेंड यां नरत्तै कूर सेविन ताळ्तलोडं ॥४६८॥ इस प्रकार कहते ही उस हाथी को पूर्वभव का जाति स्मरण उत्पन्न हो गया । मौर वह मूच्छित होकर जमीन पर गिर गया । तदनन्तर वह हाथी थोडी देर में सचेत होकर खडा हुमा । उस हाथी का यह हाल देखकर. पुनः प्राकाश में से नीचे पाकर उन मुनिराज ने धर्म का उपदेश देना प्रारंभ किया और हाथी भक्ति से ध्यान पूर्वक उपदेश सुनने लगा। __ मुनि महाराज ने धर्म की महिमा का उपदेश उस हाथी को सुनाते हुए यह कहा कि यह भोग सुख सामग्री अनेक भवों से भोगने में पा रहे हैं। चक्रवर्ती पद, देवपद मादि कई प्रकार की संपत्ति वैभव का प्रानन्द लेते २ इसका खूब अनुभव हो गया है । परन्तु इसमें से आज तक क्षण २ में नष्ट होता हुआ कोई पदार्थ शाश्वत देखने में नहीं पाया। यह प्रात्मा अनादि काल से शुभाशुभ कर्म के फल से इस जगत में तेली के बैल के समान जैसे वह पट्टो बांधे चारों ओर घूमता है उसी प्रकार चारों गतियों में घूमता फिरता है। हमने इस मोर माजतक लक्ष्य नहीं दिया। कहा भी है: भोगानभुक्ता वयमेव भुक्तास्तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः। कालो न यातो वयमेव यातास्तृष्णानजीर्णा वयमेव जीर्णाः। विषयों को हमने नहीं भोगा, किन्तु विषयों ने हमारा ही भुगतान कर दिया हमने तप को नहीं तपा,किन्तु तप ने हमें ही तपा डाला। काल का खातमा नहीं हुमा, किन्तु हमारा ही खातमा हो चला तृष्णा का बुढापा नहीं पाया किन्तु हमारा ही बुढापा मा गया।क्यों. कि जब तक तृष्णा नहीं मिटती तब तक मोक्ष नहीं होता। कहा भी है: अंगं गलितं पलितं मुडम् , दशनविहीनं जातं तुण्डम् । वृद्धो याति गृहीत्वा दण्डम् , तदपि न मुञ्चत्याशा-पिण्यम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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