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________________ २१८ ] मेह मंत्र पुराण अंश शिथिल हो गये हैं. बूढापे में सिर के बाल सफेद हो गये हैं मह में दांत नही रहे हैं, हाथ में ली हुई लकडी के समान शरीर कांपता है, तो भी मनुष्य प्राशा रूपी पात्र को नहीं त्यागता है। इस कारण हे गजराज! इससे भिन्न मात्म सुख का अनुभव माज तक इस जीव को नहीं पाया। प्राचार्य कुन्दकुन्द भी कहते हैं: सुदपरिचिदाणुभूया सव्वस्स वि कामभोगबंध कहा। एयत्तस्सु बलंभो रण वरिण सुलहो विहत्तस्स ।। यद्यपि इस समस्त जीव लोक को काम भोग विषय कथा एकत्व के विरुद्ध होने से प्रत्य-त विसंवाद करने वाले हैं, मात्मा का महान बुरा करने वाले हैं, कई बार सुनने में पाया है, परिचय व कई बार अनुभव में आ चुका है। यह जीव, लोक-संसार रूपी चक्र के मध्य में स्थित है जो निरन्तर अनेक बार द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव का परावर्तन रूप करने से भ्रमण करता है। समस्त क्षेत्र को एकछत्र राज से वश करने वाले बलवान मोह के द्वारा राग रूपी सांकल से बैल की भांति जोता. जाता है । वेग से बढ़े हुए तृष्णा रूपी रोग के संताप से जिसके अन्तरंग में शोक व पीडा हुई है। मृग की तृष्णा के समान श्रांत संतप्त होकर इन्द्रियों के विषयों की ओर दौडता है। इतना ही नहीं इस काम में आपस में भाचार्यत्व को करता है तथा दूसरे को कहकर भी अंगीकार कराता है। इसलिए काम भोग की कथा सब को सुख से प्राप्त होती है । भिन्न आत्मा का जो एकत्व रूप है वह सदा अंतरंग में प्रकाशमान है तो भी वह कषायों के साथ एक रूप सरोखा हो रहा है। इसलिए उसका अत्यन्त तिरोभाव अर्थात् वह माच्छादन हो रहा है। इसलिए अपने में आत्म ज्ञान न होने से अपने माप ने कभी भी स्वयं को नही जाना, तथा दूसरे ज्ञानी जनों की सेवा संगति भी नहीं की इसलिए वह एकत्व की भावना न सुनने में आई और न कभी अनुभव में ही आई । यद्यपि वह एकत्व निर्मल भेद ज्ञान होकर प्रकाश में प्रकट होता है परन्तु पूर्व में एकत्व भावना के परिचय न होने के कारण महानदुर्लभ है ।।४६८।। याकयुं किळयु मादि यावयु निड़ विल्ले । बोकिय विनइन ट्रबम विलक्कला मरनु मिल्ल । तीकदि सारंदु सेल्बुळि तुनयु मिल्ल । नीकर गुरणंगळल्ल निड़ तानिल्ल यड़ें ॥४६६॥ अर्थ-प्रतः हे गजराज ! तुम मिथ्यात्व और परिग्रह रूपी पिशाच के निमित्त से चारों गतियों में भ्रमण करते हुए आते समय तुम को उस दुख से रक्षा करने वाला कोई नहीं है। जितने भी आज तक इस शरीर संबंधी पुत्र, मित्र, बंधु, बांधव प्राप्त होते आये हैं, वे सब पाप पुण्य के सगे हैं। परन्तु जब पुण्य संचय समाप्त हो जाता है तो सब अपने २ ठिकाने चले जाते हैं। परन्तु आज तक जितना २ तुमने उनके संरक्षण के लिए पाप किया उस पाप के भोगी तुम ही हुए । कोई भी दूसरा इसको बंटा नहीं सका, न संसार में तेरा दुख बंटाने वाला कोई साथी मिला। इसलिए तेरी रक्षा करने के लिए जैन धर्म ही है। तेरी मात्मा को सुख शांति पहुंचाने वाला तू स्वयं ही है और कोई अन्य नहीं है। कहा भी है: Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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