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________________ मेव मंवर पुराण [ २१९ सातों शब्दजु बाजते, घर घर होते राग । ते मंदिर खालो परे, बैठन लागे काग ।। परदा रहती पदमिनो करती कुल की कान । घडो जु पहुंची काल की डेरा हुमा मसान ।। जिस मकान में पूर्व में अनेक प्रकार के गाने गाये जाते थे प्राज वे खाली पड़े हैं, कोए बैठे हुए हैं । जो महारानी पद्मनी पहले परदे में रहती थी और कुल की प्रान के कारण बाहर नहीं पाती थी, वही प्राज काल के प्रा जाने के कारण सबके सामने मरघट में पडी है । कहा है: सुबह जो तस्ते शाही पर बडा सजधज के बैठाया। दोपहर के वक्त में उनका हुमा है बास जंगल का ।। वाताभ्रविभ्रममिद वसुधाधिपत्यम् । पापातमात्रमधुरो विषयोपभोगः ।। प्रारणास्तृणाग्रजलविंदुसमा नराणां । धर्मः सखा परमहो परलोकयाने ॥ इस समस्त पृथ्वी तल का आधिपत्य तीव वायु के वेग से तितर बितर हुए मेघ के समान अस्थिर है । तथा मानव संबंधी सभी विषय भोग प्रापात मधुर हैं अर्थात् उपभोग काल में ही यह विषयोपभोग मधुर होते हैं, परिणाम में नहीं । तथा मनुष्यों के प्रारण तृण के अग्रभाग पर रहने वाले जलबिंदु के समान चंचल हैं अर्थात् न जाने ये प्राण पखेरू कब इस सन को छोडकर उड़ जायेंगे। अहो! यह कितने पाश्चर्य की बात है कि इन नश्वर सभी वस्तुओं के लिये मनुष्य सारे प्रयत्न करता रहता है । तो भी ये सभी वस्तुएं मनुष्य के सदा सहचर नहीं होती। सर्वदा सहचर हो वहतो एक धर्म ही है,जो परलोक प्रयारणकाल में भी साथ नहीं छोडता । अर्थात् परलोक जाने के समय मनुष्यों का एक मात्र सखा धर्म ही होता है। अतः परलोक में सच्ची मित्रता निभाने वाला यह प्राराधित एक मात्र धर्म ही है जिसे विषयाभिलाषी जन भूले बैठे हैं ॥४६॥ उंदुनाम विट्ट वल्ला पुर्गल मोड मिल्लै । पंडु नाम पिरंबिडाद पदेशमु मुलबि निल्छ । कोंडु नायिट या गुण मिला पूदिगंमय । मंडिना पुलत्तिल बोळवन् बिनै घरबाई लड़न ।।४७०॥ अर्थ-के गजराज! अनादि काल से आज तक यह जीव समस्त पुद्गल पर्याय, संपूर्ण योनियों को धारण करता तथा छोडता आया है, कोई भी पर्याय शेष नहीं रही है। संसार में जितने भी जीव हैं इन सबों ने अनादिकाल से समस्त पुद्गल पर्याय को मथुर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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