SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 277
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२० ] मेर मंदर पुराण परिणामों के द्वारा कर्म, नौकर्म को ग्रहण कर अनुभव न किया हो ऐसी कोई वस्तु नहीं है। जितने संसार में प्रदेश हैं उनमें हम जन्म मरण करते पाए हैं। ऐसा कोई शरीर नहीं है जिस को हमने ग्रहण नहीं किया हो। हमारा यह शरीर महान अशुचिमय है । इसके निमित्त हमारा आत्मा अनेक प्रकार के दुख उठा रहा है। पंचेंद्रिय विषयों में लवलीन होने के कारण कर्म परमाणु आकर आस्रव कर रहे हैं और इसी प्रास्रव के कारण आत्मा इस संसार में परिभ्रमण कर रही है । और इसी कारण हम अनेक प्रकार से दुखी हो रहे हैं ।।४७०।। अरियदिवुलगिन् वेंडोल तिरुमोळि यवन पेट्रार । पेरिय नर काक्षि ज्ञान उळुक मामवट्रि पिन्न । वरुविन वाइलेला मडक्क मुन मिडेंद पांव । निरु सेरे सेल्लमिद नेरियै नी निनक्क बेंडेन ॥४७१॥ अर्थ-इस लोक में घाती कर्म को नाश करके केवलज्ञान को प्राप्त हुए अहंत भगवान तथा उनके मुख से निकले हुए परमागम ही अथवा जिनवाणी पर ही श्रद्धा रखना सम्यकदर्शन है। उसको संशय रहित होकर जानना सम्यक्ज्ञान है । उसको जान कर उसके अनुसार चलना सम्यक्चारित्र है। इस प्रकार कहे हुए धर्म व्यवहार के अनुसार पालन करनेसे तथा आने वाले अशुभ कर्मों को रोकने के लिए प्रात्मभावना के द्वारा भक्तिपूर्वक आचरण करने से अनादि काल से आत्मा के अन्दर लगे हुए कर्मों की निर्जरा होती है । यह निर्जरा मोक्षमार्ग के लिए कारण है और यही आगे चलकर मोक्ष का देने वाली है। इसी प्रकार आचरण करना व्यवहार धर्म है । . भावार्थ-जीवादि तत्त्वों पर श्रद्धान रखना सम्यकदर्शन है। इसी तत्त्व को तथा अनेक प्रकार के स्वरूप को समझ लेने से सम्यक्ज्ञान की प्राप्ति होती है । यह सब समझ लेने के बाद तत्त्वों के अनुसार चलना सम्यक्चारित्र है । इस प्रकार बार बार विचार करना तथा आराधना करना यह निश्चय रत्नत्रय के लिये कारणभूत है । इसकी भावना भाने से स्वपर का आत्मघात न हो अर्थात् परपीडा न हो ऐसे रत्नत्रय के प्रकाश में चलने से आत्मोद्धार और लोकोद्धार होता है । यह रत्नत्रय आत्मा का भूषण तथा प्रकाशक है इसी को मोक्ष मार्ग कहते हैं। इसी मोक्ष मार्ग में अपने प्रात्मा की स्थापना करो। तदनन्तर उसी का ध्यान व भावना करो। प्रात्मा में हमेशा विचरण करो । अन्य द्रव्यों में विचरण मत करो। इस प्रकार ग्रंथकार ने कहा है आचार्य ने जैन धर्म के सार को समझने के पहले व्यवहार रत्नत्रय को समझने का आदेश दिया है । वह इस प्रकार है: "द्रव्य छह हैं, जीव, अजीव, धर्म, अधर्म, आकाश और काल । तत्त्व सात हैं जीव, अजीव, प्रास्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष। इनमें पाप और पुण्य मिलने से नौ पदार्थ होते हैं । अस्तिकाय पांच हैं-जीवास्तिकाय, अजीवास्तिकाय, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy