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मेरु मंदर पुराण
रत्न के जन्मोत्सव के निमित्त राजा ने याचक जनों को विविध भांति दान देकर पुत्रोत्सव हर्षोल्लास पूर्वक मनाकर नाम संस्कार करके पुत्र का वज्रायुध नाम रखा ।।७६२।।
मदि कलै वळरत्तानुं वळवदे पोल मैंदन ।। विदिइ नार् कलयुं वेदर विजयुं विळंग प्रॉगि ॥ नुदि कोंड वेर्क नल्लार् नोक्किनु किलक्कमाना ।
नदि पति यदनै यारायं द रिवै यर् पुरणर्क लुट्रान् ॥७६३।। अर्थ-जिस प्रकार शुक्ल पक्ष की चंद्रकला दिनोंदिन बढती जाती है उसी प्रकार राजकुमार वज्रायुध शैनः २ वृद्धि को प्राप्त होता हुआ अल्प काल में ही सकल विद्याओं तथा कलानों में तथा मायुधादि में भो निपुणता प्राप्त करके यौवनावस्था में प्रवेश किया। तत्पश्चात् एक दिन राजा चक्रायुध ने अपने पुत्र को सर्व विद्याओं व सुलक्षणों से सम्पन्न तथा तरुण अवस्था देखकर विवाह संस्कार करने का विचार किया। ७६३।।
* पृथ्वी तिलक नगर का वर्णन *
मरुंद वान् कुरुंचि मुल्ल नैदलुं मयंगि वानोत् । तिरुदु विन विगर्प मिड्रि इलंगिय सोलेत्तागि । परुदि इन वेम्मै याट पदार्ग सूळ माड यूदर् ।
पिरुदिवि तिलक मेन्यूँ पेरुडे नगर मुंडे ॥७६४॥ अर्थ-जिस प्रकार देवगण सर्व सम्पत्ति व सुख सामग्रियों से सम्पन्न रहते हैं तथा इच्छानुसार पूर्ण रूपेण इन्द्रिय सुखों का भोगोपभोग करते रहते हैं , उसी प्रकार इस पृथ्वी में छह प्रकार की ऋतुए प्रजाजनों के मनोनुकूल सुखदायिनी थी। पृथ्वी के चारों ओर वनो. पवन होने के कारण प्रजाजनों को शीत-उष्णादि की कोई बाधा नहीं होती थी। बसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमंत, शिशिर ये छह ऋतुएं सदा पृथ्वी पर बनी रहती थीं; जिससे कि सभी प्रजाजन सदा सुखी रहते थे। उस नगर का नाम पृथ्वीतिलक नगर था ।।७६४।।
मट्दि नगर् कु नादन मालदिवेगन मांड। पेट्रि यान् दनक्कु देवि पिरिय कारिणि बाळा ॥ मटि वर तमक्क मंगें इरतन माल यानाळ । सेट्र निरवत्तु देवनायवच्चीवर तान् ॥७६५॥
अर्थ-पृथ्वीतिलक नगर का राजा प्रति तिलक था। उनकी पट्टरानी सर्व गुरण सम्पन्न, अत्यंत सुन्दर, शीलवान थी। जिसका नाम प्रियकारिणी था। जो पूर्व जन्म में श्रीधरा नाम की स्त्री थी, वह आर्यिका दीक्षा लेकर उत्तम चारित्र पालन करके दुर्वर तपश्चर्या करती हुई अंत में समाधि पूर्वक शरीर को त्याग करके देवगति को प्राप्त हुई। वहां के
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