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________________ मेर मंदर पुराण [ १२१ स्वर्गीय सुखों का दीर्घकाल तक उपभोग करके वहां की प्रायु पूर्ण करके इस नगर के राजा प्रतितिलक की पट्टरानो प्रियकारिणी के गर्भ में प्राई और नवमास पूर्ण होने के बाद उत्पन्न हुई । उसका नाम रत्नमाला रखा गया ॥७६५।। * रत्नमाला की शोभा का वर्णन . कपंग वल्लिई करिण मंजरिये पोहुँ । पोर् पुर तिरुविन पांद पूमग ळिरके कामन् ।। नर्कनत्तूरिण नंग तन् करणे काळूरु ।। पोदिर कबळी नल्लार् पुगळेन परंदव लगुल् ॥१६॥ अर्थ-वह रत्नमाला द्वितीया के चन्द्रमा की कला के समान शनैः शनै: बढ़ती गई और उसके शरीर की शोभा दीप्तिमान होती गई। उसका चरणतल रक्तकमल के समान सुन्दर, एडी तरकश को भांति, जंघा कदलो के समान सुशोभित थी। जिस प्रकार महापुरुषों की कीर्ति सर्वत्र फैल जाती है उसी प्रकार उस रत्नमाला कन्या के सौंदर्य की शोभा सर्वत्र फैल गई। उसका विशाल हृदय स्वर्ण कलश के समान प्रत्यंत सुन्दर था ।।७६६।। मिन् सुळि नर को कोर कैइर् ट्रामम् देय तोळ । पोन् पुनै यमि सेपि निने मुलै बलंपुरिइन् । दन् सुरि पोल नंगै मगल विरुक्क कोव्वं । नन् कनिया सेम्बाय मुरुष नर शिरिय मुत्तम् ॥७६७॥ अर्थ-रत्नमाला का कटिभाग केहरि के समान, नामि पानी में उठने वाले भवर के समान, कंठ शंख के समान, स्तन सुन्दर स्वर्ण कलश के समान, प्रपर टेसु पुष्प के समान रक्त तथा दंत, पंक्तियां मुक्ताफल मोती के समान प्रत्यंत मुशोभित लगती थीं ।।७६७।। मुगतिर यळपलाए पोन्बोळगुब दोक मूर्छ। बगुत्त तन्मुगत्तिर् केट बळ गैर कादुम् ॥ नगत्तिनु कन्लोप्पिल्ले नचिले पुरवं मंग। मुगत्तिनु कोप्पु तिगन् मुयलिटि इरुवं रामे ॥७॥ पर्थ-उसके कान अत्यंत सुन्दर विशाल थे। नयन मृग के समान तण वृकुटि झुके हुए धनुष के समान थी ।।७६८।। मेरि, मंतोळुगि मी निलत्तिन् कविर येल्लास । परंवोह कई बाकि तदान करि पंदन ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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