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________________ ३. ] मेरु मंदर पुराण मर्च-मानों देवलोक से हो यह भूमि उतर कर पाई हो, ऐसा अत्यन्त सुन्दर कुवेर की नगरी के.समान वीतशोक नामक नगर सुशोभित हो रहा था और इसका अधिपति हस पक्षी के समान मन्द-मन्द चाल से मन्मय के समान वैजयन्त नाम का राजा था। भावार्ष-देवलोक ही यहां उतरकर पाया हो, ऐसा वह बीतशोक नग सुशोभित हो रहा था और मन्मथ के समान अत्यन्त सुन्दर वैजयन्त नाम का वहां का राजा चक्रवर्ती के समान था। वह राजा कैसा था? इसका वर्णन इस प्रकार है : वक्त्राग्रे भाग्यलक्ष्मी करतलकमले सर्वतो दानलक्ष्मीः । दोर्दडे बोरलक्ष्मो हृदये सरस्वती भूतकारुण्यलक्ष्मी ।। सर्वाग सौम्यलक्ष्मीनिखिलगुणगणा बरे कीतिलक्ष्मीः । खड्गाग्रे शत्रुलक्ष्मीजयतु विजयते. सर्वसाम्राज्य लक्ष्मीः ।। ई-मख्य में भाग्य लक्ष्मी. हाथरूपी कमल में दानलक्ष्मी. भजा में वीर लक्ष्मी इदय में सरस्वती रूपी लक्ष्मी, सम्पूर्ण जीवों पर करुणा रूप लक्ष्मो, अंगों में सौम्य रूपी लक्ष्मी, सम्पूर्ण जगत् में गुण (कीति रूपी) लक्ष्मी, शत्रुओं को जीतने के लिये खड़ग रूपी लक्ष्मी और समस्त साम्राज्य को जीतने वाली विजय भादि लक्ष्मियां चक्रवर्ती राज्य में विद्यमान वीं और वह राजा जगते में सदैव जय जयकार को प्राप्त होता था। इस प्रकार अत्यन्त पराक्रमी, गुणवान् सर्व सुलक्षणयुक्त धर्मनीति आदि जानने वाला शूरवोर वह वैजयन्त नाम का राजावा ॥४१॥ प्रारती नयमग कालिया। मार मन्मय ममरं दमालिया ॥ नार तोल्पगै येउत्तं सूक्षिया। नारिमोंडकोंड गड वेळ कयान् ॥४२॥ अर्थ-वह राजा कैसा था? छह प्रकार मिथ्यानय को त्याग कर सम्यग्दर्शन को प्राप्त, छह प्रकार के नयोंसे युक्त और सत्कीर्ति को प्राप्त था। वह अनादि काल से जीव के माग चले पाये क्रोध, मान, माया, लोभ मद मादि को जीतने में चतुर था। वह विविध प्रकार के अच्छे उपायों को जानने वाला था। प्रजाजनों से छह भाग में से एक कर लेने वाला और परिग्रह में अधिक इच्छा न रखने वाला अर्थात् परिमित परिग्रही था। भावार्थ-इस भांति छह प्रकार के मिथ्या नय को त्यागकर छह प्रकार के सच्चे नय से युक्त अनेक प्रकार के जीव के साथ चले आये क्रोध, मान, माया लोभ मदादि को जीतने वाला, अच्छे उपायों को जानने वाला. छह प्रकार के करों में केवल एक भाग कर लेने वाला परिमित परिग्रहवारी, ऐसा वह वैजयन्त नामक राजा था। नय का स्वरूप छठे अध्याय में विशेष रूप से विवेचन किया जायगा।॥४२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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