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________________ मेरु मंदर पुराण [ ३७ अर्थ – वहां पर भांति २ के फूलों की माला, चंदन तथा अनेक प्रकार की सुगंधित वस्तुओं का आदान-प्रदान निरन्तर लगा रहता है तथा भांति २ के स्वादिष्ट पकवान बनाकर परस्पर में एक दूसरे को भोजन कराते रहते हैं। जिस प्रकार समुद्र से घिरी हुई जमीन में द्रव्य पड़ा रहता है उसी प्रकार न्याय पूर्वक खरीदना, बेचना, न्याय पूर्वक चलना, अन्याय से सर्वथा दूर रहना तथा भगवान् का पंचामृताभिषेक पूजा आदि शुद्धि पूर्वक करना वहां के पुण्यवान् पुरुषों की निधि के समान सुरक्षित रहती है । भावार्थ - उस महान् वीतशोक नगर में रहनेवाले भव्य जीव पुण्यानुबंधी पुण्य के संचय के कारण खाने-पीने में कभी अभक्ष्य वस्तु काम में नहीं लेते। उनका खान-पान परम पवित्र होता है । वहां न तो अकाल ही पड़ता है और न प्रतिवृष्टि ही होती है । वहां का धान पुष्टिकारक, सुगंधित तथा उत्तम प्रकार का होता है। वहां पर मद्य, मांस मधु का सेवन करने वाले पैदा ही नहीं होते। केवल तीन वर्ण वाले लोग वहां पर होते हैं । वे महान् पुण्यशाली हैं। एक देशव्रत को धारण करने वाले भव्य पुरुष ही वहां उत्पन्न होते हैं । यह सभी उनके पूर्वजन्म में किये हुये पुण्य का ही प्रभाव है। अहंत भगवान् की पूजा, अभिषेक सत्पात्रों को दान आदि पुण्य करने से वे विदेह क्षेत्र में जन्म धारण करते हैं । वे न्यायपूर्वक धनोपार्जित करके दया धर्म के पालक तथा सत्पात्र को दान देने में सदा दत्तचित रहते हैं. । इस प्रकार वीतशोक नगर निवासी भव्य जीवों का वर्णन किया गया ॥ ३६॥ मुळवमा मुरसंन् संग कडलन मुळं गवं पोर् । कुळलियाल वीर येंग कोंबनार कुलावियाड ॥ निळलुला मदियं कोलु कुडैमुम्मै नीळल् वेदन् । विवरा मूदूर् वीत शोक माइ विळंगु निड्रं ॥४०॥ अर्थ-उस वीतशोक नगर के भव्य श्रावक और श्राविका परस्पर में मिलकर अनेक प्रकार शंख, भेरी आदि वाद्य यन्त्रों से नाद करते रहते हैं । जैसे समुद्र में लहरों के आवागमन से निरंतर कलकल ध्वनि होती रहती है उसी प्रकार विविध भांति के नक्कारे वाद्यों, स्वर्णमयी शहनाई, बांसुरी वीरणा इत्यादि के शब्द सुनाई देते रहते हैं । फूलों की लता के समान नाना प्रकार के नृत्य करने वाली स्त्रियां जैसे चन्द्रमा अपने शीतल किररणों से सभी को शान्ति पहुँचाता रहता है उसी प्रकार छत्र चंवर सहित वेदी में विराजमान भगवान् अर्हत परमेश्वर का उत्सव करते समय सभी को शान्ति का अनुभव कराती रहती हैं । उस नगर का नाम वीतशोक इसलिये पड़ा कि वहां की जनता शोक से सर्वथा रहित रहकर सदा सुख शान्ति का अनुभव करती रहती है ॥४०॥ Jain Education International पोलगु लाय् पोंदु पूमि शै । मन्तु मन्नविम् मानगर् किरं ॥ एन मेनर्ड या कनगरा । मन्नर् मन्न वन्न वैजयंतने ॥४१॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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