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मेह मंदर पुराण अथ-उस राजा के राज्य में हाथियों के रथ, घोड़ों की घुड़शाला, मायुधशाला तथा बड़े २ सैन्यादि थे। उन्हें शत्रु राजा अनेक प्रकार की नजर (भेंट) करते रहते थे, जिससे कि कोषागार सदा परिपूर्ण रहा करता था। अभिमानी राजानों से परामर्श करने के लिये अनेक मंडपशाला मादि निर्मित किये गये थे जिसका वर्णन अल्पबुद्धि के द्वारा वर्णन किया जाना शक्य नहीं हे ॥३७॥
कामवेवनयर मैंदर कावियन काणि नारुम् । पूमगळिलंगु वीरर् पोर् कुलि कुळागल् पोल्वार् ॥ तामवेन्कुडे नातुं शक्करन् दन्न योक्कु। वामम सूळ कमलं संगिन् वन्कयर् वनिगरेल्लाम् ॥३८॥
अर्थ-वीतशोक नामक नगर में रहने वाले पुरुष कामदेव के समान अत्यन्त सुन्दर थे और नील कमल के समान नेत्रधारिणी स्त्रियां लक्ष्मी के समान शोभायमान होती थीं। प्रकाशपुज से युक्त वीर पुरुष नगरी में सिंह के समान महा पराक्रमी थे। वे गले में सदैव फूलों का हार धारण किये हुये रहते थे । धवल छत्र को धारण किये हुये चक्रवर्ती सभा के मध्य में देवों की भांति सुशोभित हो रहे थे। व्यापार करने में वैश्य लोग अत्यन्त निपुण होते थे तथा उनके हाथ में शंख पद्म आदि मांगलिक चिन्ह बने हुये थे। उनके हाथों की रेखा ऐसो सुन्दर व सुलक्षणा थी, जिससे कि वे महान् पुण्यवान् प्रतीत हो रहे थे।
भावार्थ-उस विदेहक्षेत्र में उत्पन्न होने वाले मनुष्य पुण्यशाली होते थे। उनका निरोग शरीर, उत्तम कुल तया इच्छानुसार सुखसामग्री पुण्यानुबन्धी पुण्य के प्रभाव से ही उनको प्राप्त हुई थी। वहां के पुरुष महान् पुण्यवान तथा शक्तिशाली थे। और सदा भोगोपभोग से परिपूर्ण रहा करते थे । वहां के स्त्री, पुरुष तथा बालक स्वभाव से ही सुन्दर तथा मधुर वचन बोलते थे। वे सदा सत्पात्र दान देने व अस्त भगवान की पूजा करने में श्रद्धा भक्ति पूर्वक संलग्न रहते थे । वे परम दयालु, धर्मात्मा शीलधर्म परायण रहते थे। शील पालन करने में वे इतने सावधान रहते थे कि अपनी सभी शक्तियों का सदुपयोग करके वे पूर्ण रूप से उसमें दत्तचित हो जाया करते थे । प्रोषधोपवास धारण करने में सदा रुचि रखते थे और सत्पात्रों को दान देकर पुण्यानबंधी पुण्य के प्रभाव से विदेह क्षेत्र में जाकर जन्म धारण करते थे । अत्यन्त पुण्यशाली होने के कारण वहां के स्त्री-पुरुष सदा शोभा को प्राप्त करते रहते थे। प्रकाश से युक्त वीर पुरुष सिंह के समान पराक्रमी मालूम होते थे, तथा गले में पुष्पों का हार धारण किये रहते थे। श्वेत छत्र को धारण किये हुये चक्रवर्ती इस प्रकार सुशोभित हो रहे थे मानों देवों की सभा लगो हुई हो । उनकी हथेली में शंख चक्र आदि शुभलक्षण अंकित थे, जिससे उनकी शोभा अत्यधिक दृष्टिगोचर होती थी ॥३८।।
माले यु सांटु पंच वासमुम् वलगुंवारुम् ।। शालोई नडिसिलुबार तमर्गळ कूटु वारुम् ॥ वेले नल्लुलगं विकुं विकुप्णोरुल वांगु वारु। मालयन् तोर मे मै यमरंदु शैवार मानार् ॥३६॥
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